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पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/५१

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उभाड़ा था। व्यभिचारिणी स्त्री पेट में गर्भ होने पर पछताती है सही; लेकिन यह उसकी मूर्खता है। उसे तो व्यभिचार के ही समय यह परिणाम सोचना था।

बात दरअसल यह होती है कि स्थिर स्वार्थ वाले सम्पत्तिजीवी तब तक जनान्दोलन से नहीं घबराते जब तक उनके स्वाथों पर श्राघात की अाशंका न हो, प्रत्युत स्वार्थ-सिद्धि के लिये जनान्दोलन और क्रान्तिकारी: संघर्षो तक को प्रोत्साहित करके अपना काम निकालते हैं। फ्रांस, आदि क्रान्तियाँ इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं । बिना जनता की सीधी लड़ाई के. मालदारों को पूरे हक नहीं मिलते, ताकि उद्योग-धन्धों का वेतहाशा प्रसार कर माल बटोरें। इसी से उसको प्रोत्साहन देते हैं । उस समय तो उन्हें लाभ ही नजर आता है। यही बात १९२१ वाले और बाद के कांग्रेसी संघर्षों में भी हुई। नेताओं ने खुश होके जनता को ललकारा- उभाड़ा। उन्हें कोई खतरा तो तब दीखा नहीं, मगर अब जब जनता अपनी शक्ति का अनुभव करके उनसे भी दो-दो हाथ करने को यामादा हो गई तो लगे बगले झाँकने और बहानेबाजियाँ करने । अब उन्हें अपने लिये ‘खतरा नजर आ रहा है। इसीलिये किसान-सभा को कोसते हैं। उन्हें अपने ही बनाये जनान्दोलन से भय होने लगा है। मगर अब तो उनकी भी लाचारी है। अब तो तीर छूट चुका। फिर पछताने से क्या । चीख-पुकार मचाने से क्या १ प्रत्युत वे जितना ही इसका विरोध करेंगे किसान-सभा उतनी ही तेज होगी, यह अटल बात है। हमें दर्द के साथ यह भी कहना पड़ता है कि लोगों को कांग्रेस से चिपकाये रखने के लिये वस्तुस्थिति और व्यावहारिकता का श्राश्रय न लेकर अनुशासन की तलवार का सहारा लिया जाना ही अच्छा समझा जाने लगा है। यदि कांग्रेस की भीतरी खूबियाँ, उसके अन्तर्निहित गुण तथा उसकी ऐतिहासिक आवश्यकता हमें उसकी ओर आकृष्ट नहीं कर सकती है, एतन्मूलक उसमें होने वाली यदि हमारी भक्ति पूरे पचीस साल की उसकी लगातार की कसमकश के बाद भी नाकाफी है तो अनुशासन की नंगी