पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/६५

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इनकी ज़रूरत भी क्या है ? ये तो कुछ करते नहीं । हाँ, रास्ते में अहंगे जरूर लगाते हैं, पता नहीं, आज वही बदल गये, दुनिया ही बदल गई या जमींदार ही दूसरे हो गये । क्योंकि अब वह ये बातें बोलते नहीं, बल्कि जमींदारों के समर्थक बन गये हैं, ऐसा कहा जाता है। समय-समय पर परिवर्तन होते ही रहते हैं और नेता इस परिवर्तन के अपवाद नहीं हैं। शायद वे अब संजीदा और दूरंदेश बन गये हैं, जब कि पहले सिर्फ आन्दोलनकारी agitator थे। मगर, गुस्ताखी माफ हो । हमें तो संजीदा के बदले 'एजीटेटर' ही चाहिये । अपनी-अपनी समझ और जरूरत ही तो ठहरी।

हाँ, तो उसी सभा से हम लोग रात में लौरी के जरिये मुजफ्फरपुर रवाना हुए । हमें आधी रात की गाड़ी पकड़ के छपरा जाना था। बा० रामदयालु सिंह, पं० यमुना कापी और मैं, ये तीनों ही उस लौरी में बैठे थे। मैं था प्रान्तीय किसान-सभा का सभापति और कापी जी उसके संयुक्त मंत्री (डिविजनल सेक्रेटरी) थे । बाबू रामदयालु सिंह ने प्रान्तीय किसान- सभा की स्थापना में बहुत बड़ा भाग लिया था। वे उसकी प्रगति में लगे थे। इस तरह हम तीनों ही सभा के कर्ता-धर्ता थे--सब कुछ हमी तीनों ने उसे बनाया था और अगर हम तीनों खत्म होते तो सभा का खात्मा ही हो जाता यह पक्की बात थी।

लौरी रवाना हो गई। रात के दस बजे होंगे। बाबू रामदयालु सिंह ड्राइवर की बगल में आगे वाली सीट पर थे और हम लोग भीतर थे। लौरी चलते-चलते एक तिहाई रास्ता पार करके रुनीसैदपुर में लगी। ड्राइवर उसे छोड़ कहीं गया और थोड़ी देर बाद वापिस पाया। हम चल पड़े । कुछ दूर चलने के बाद ड्राइवर को ऊँघ सी पाने लगी। नतीजा यह हुआ कि लौरी डगमग करती जाती थी। कभी इधर फिसल पढ़ती तो कभी उधर । ड्राइवर उसे ठीक सँभाल न सकता था। वह सड़क .भी ऐसी खतरनाक है कि कितनी ही घटनायें (accidents) हो चुकी ..