पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/७२

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क्योंकि हम लोकमत को जानना तो चाहते ही हैं। साथ ही, उसे तैयार करना भी पसन्द करते हैं। हमें खुद लोगों पर किसी सिद्धान्त को लादने के बजाय लोकमत के अनुसार ही सिद्धान्त तय करना पसन्द है। यही कारण है, कि अब तक हमारी प्रान्तीय किसान सभा इस बारे में मौन है। वह अभी तक अनुकूल लोकमत जो नहीं पा रही है।

इस प्रसंग से एक और भी बात याद आती है। हमारे कुछ दोस्त जमींदारी मिटाने के अग्रदूत अपने को मानते हैं...कम से कम यह दावा आज वे और उनके साथी करते हैं। मगर इस सम्बन्ध में कुछ बातें स्मर- रणीय हैं । जब सन् १६२६ ई. के नवम्बर में सोनपुर के मेले में बिहार प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना हो रही थी, और उन लोगों के मत से आज के गान्धीवादी ही उसे कर रहे थे तो उनने खुली सभा में उसका विरोध किया था। उनकी दलील थी कि किसान सभा की जरूरत ही नहीं। कांग्रेस से ही वह सभी काम हो जायगे जिनके लिये यह सभा बनाई जाने को है। उनने यह भी कहा कि किसान सभा बनने पर किसान उसी ओर बहक जायगे और इस प्रकार कांग्रेस कमजोर हो जायगी | मैं ही उस समय . सभापति था और मैंने ही उनका उचित उत्तर भी दिया था। इसीलिये ये बातें मुझे याद हैं ! इन दलीलों को पढ़ के कोई भी कह बैठेगा कि कोई गांधीवादी अाज ( सन् १६४१ ई० में) किसान सभा का विरोध कर रहा था। वह यह समझी नहीं सकता कि भावी क्रांतिकारी (क्योंकि पता नहीं कि वे उस समय क्रांतिकारी थे या नहीं) यह दलीलें पेश कर रहा है जो आगे चलकर जमींदारी मिटाने का अग्रदूत बनने का दावा करेगा।

शायद कहा जाय कि उस समय उन्हें इतना ज्ञान न था और शांति- कारी पार्टी भी पीछे बनी ! खैर ऐसा कहने वाले यह तो मानी लेते हैं कि ये मसीहा लोग भी एक दिन कटर दकियानूस थे। क्योंकि उनकी नजरों में आज जो एकाएक दकियान्स दीखने लगे हैं वही जब किसान सभा के विरोध के बजाय उसके समर्थक थे तब मसीहा लोग विरोधी थे। यह निराली बात है।