सूदखोरों ने उन्हें सर्वत्र बुरी तरह सताया है और सरकार भी इन उत्पीड़कों का ही साथ देती रही है। फलतः किसानों के विद्रोह सर्वत्र होते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में––१८५० में––शोषितों क़े मसीहा फ्रेड्रिक एंगेल्स ने "जर्मनी में किसानों का जंग" (दी पीज़ेन्ट वार इन जर्मनी) पुस्तक लिखकर उसमें न सिर्फ जर्मनी में होने वाले पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों के सन्धि-काल के किसान-विद्रोहों का वर्णन किया है, वरन् आस्ट्रिया, हंगरी, इटली तथा अन्याय देशों के भी ऐसे विद्रोहों का उल्लेख किया है। उससे पूर्व जर्मन विद्वान् विल्हेल्म जिमरमान की भी एक पुस्तक "महान किसान-विद्रोह का इतिहास" (दी हिस्ट्री औफ दी ग्रेट पीज़ेंट वार) इसी बात का वर्णन करती है। यह १८४१ में लिखी गयी थी। फ्रांस में १२-१३ वीं सदियों में फ्रांस के दक्षिण भाग में किसानों की बगावतें प्रसिद्ध हैं। इंगलैंड की १३८१ वाली किसानों की बगावतें भी प्रसिद्ध है, जिसका नेता जौन बोल था। इसी प्रकार हंगरी में भी १६ वीं शताब्दी में किसानों ने विद्रोह किया।
इस तरह के सभी संघर्ष एवं विस्फोट सामन्तों एवं जमींदारों के जुल्म ,असह्य कर-भार तथा गुलामों के विरुद्ध होते रहे, और ये चीजें भारत में भी थीं। यह देश तो दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा था ही। तब यहाँ भी ये उत्तीड़न क्यों न होते और उनके विरुद्ध किसान-संघर्ष क्यों न छिड़ते? यहाँ तो साधारणतः ब्रिटिश भारत में और विशेषतः रजवाड़ों में आज भी ये यंत्रणायें किसान भोग ही रहे हैं।
तो क्या भारतीय किसान यों ही आँख मूँद कर सारे कष्टों को गधे-बैलों की तरह चुपचाप बर्दास्त कर लेते रहे हैं और उनके विरोध में उसने सर नहीं उठाया है? यह बात समझ के बाहर है। माना कि आज के जमीदार डेढ़ सौ साल से पहले न थे। मगर सरकार तो थी। सूदखोर बनिये महाजन तो थे। जागीरदार तथा सामन्त तो थे। फिर तो कर भार, गुलामी और भीषण सूदखोरी थी ही। इन्हें कौन रोकता तथा इनके विरुद्ध किसान-समाज चुप कैसे रह सकता था? भारतीय किसान संसार के अन्य किसानों