पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/१०

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के अपवाद नहीं हो सकते। फिर भी यदि उनके आन्दोलनों एवं विद्रोहों का कोई विधिवत् लिखित इतिहास नहीं मिलता, तो इसके मानी हर्गिज नहीं कि यह चीज हुई ही नहीं––हुई और जरूर हुई––हजारों वर्ष पहले से लगातार होती रही। नहीं तो एकाएक सौ डेढ़ सौ वर्ष पहिले, जिसके लेख मिलते हैं, क्यों हुई? और अगर इधर आकर वे संघर्ष करने लगे तो मानना ही होगा कि पहले भी जरूर करते थे।

यह भी बात है कि यदि लिखा-पढ़ी तथा सभा-सोसाइटियों के रूप में, प्रदर्शन और जुलूस के रूप में यह आन्दोलन न भी हो सकता था, तो भी अमली तौर पर तो होता ही था, हो सकता ही था और यही था असली आन्दोलन। क्योंकि "कह सुनाऊँ" की अपेक्षा "कर दिखाऊँ" हमेशा ही ठोस और कारगर माना जाता है और इधर १८३६ से १९४६ तक के दर्म्यान, प्रारम्भ के प्रायः सौ साल में, जबानी या लिखित आन्दोलन शायद ही हुए, किन्तु अमली तथा व्यावहारिक ही हुए। इसका संक्षिप्त विवरण आगे मिलेगा। इससे भी मानना ही होगा कि पहले भी इस तरह के अमली आन्दोलन और व्यावहारिक विरोध किसान-संसार की तरफ से सदा से होते आये हैं। किसान तो सदा ही मूक प्राणी रहा है। इसे वाणी देने का यत्न पहले कब, किसने किया। कर्म, भाग्य, भगवान, तकदीर और परलोक के नाम पर हमेशा ही से चुपचाप कष्ट सहन करने, संतोष करने तथा पशु-जीवन बिताने के ही उपदेश इसे दिये जाते रहे हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि राजा और शासक तो भगवान के अंशावतार हैं। अतः चुपचाप उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने में ही कल्याण है। इस 'कल्याण' की बूटी ने तो और भी जहर का काम किया और उन्हें गूंगा बना दिया। फलतः कभी-कभी ऊबकर उन्होंने अमली आन्दोलन ही किया और तत्काल वह सफलीभूत भी हुआ। उससे उनके कष्टों में कमी हुई।

इधर असहयोग युग के बाद जो भी किसान-आन्दोलन हुए हैं उन्हें संगठित रूप मिला है, यह बात सही है। संगठन का यह श्रीगणेश तभी से चला है। इसका श्रीगणेश तभी से होकर इसमें क्रमिक दृढ़ता आती गई है