पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/९७

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( ४२ ) और जगहों की अपेक्षा महँगी बेंचते घे । क्योंकि ठेके वाला पैसा तो वसूल कर लेते ही थे एकाधिकार होने से दाम और भी चढ़ा देते थे। मैंने पूछा तो. पता चला कि जो किससन तेल और जगह पाँच पैसे में मिलता है वही उस जमींदारी में सात आठ पैसे में । उफ् , यह लूट ! अगर कोई आदमी बाहर से यह तेल लाये तो उसकी सख्त सजा होतो और जाने उसे क्या-क्या दंड देने पड़ते थे। इसीलिये तो इस बात का पहरा दिया जाता था कि कोई बाहर से ला न सके । दो चार को सख्त दण्ड देने पड़े तो उसका भी नतीजा कुछ ऐसा होता है कि दूसरों की भी हिम्मत जाती रहती है। यह गैरकानूनी काम सरेश्राम चलता था। यह भी नहीं कि पुलिस दूर हो । वहीं थाना भी तो है। फिर भी इस सीनाजोरी का पता चलता न था। चले भी क्यों ? अाखिर किसी को गर्ज भी तो हो किसानों को या गरीबों को गर्ज जरूर थी। मगर उनकी कौन सुने ? धनी लोग तो बाहर से ही टिन मँगा लेते थे। और वहाँ धनी हैं भी तो इने गिने ही । बनिये वगैरह तो डर के मारे चैं भी नहीं करते थे । चौधरी के रैयत चाहे धनी हों या गरीब उनकी आज्ञा के विरुद्ध जाते तो कैसे ? मगर सरकार को इस धांधली का पता क्यों जब तक मैं वहाँ न गया, यह ताज्जुब की बात जरूर है। नमक की बिक्री पर भी पहले चौधरी का एकाधिकार जलर था। लेकिन सन् १९३० ई० वाले नमक सत्याग्रह के चलते वह जाता रहा । जब लोग सरकार की भी बात सुनने को तैयार न थे और कानून की धजियां "उड़ा रहे थे तो फिर एक जमींदार की पर्वा कौन करता १और अगर कहीं जमींदार साहब इस मामले में टाँग अड़ाते तो उस समय का वायु-मंडल ही ऐसा था कि उन्हें लेने के देने पड़ते । क्योंकि गैरकानूनी हरकत का भंडाफोड़ जो हो जाता.। फलतः न सिर्फ नमक वाला उनका एकाधिकार चला जाता, बल्कि किरासन वगैरह के भी मिट जाते । इसीलिये उनने चालाकी की और चुप्पी मार ली। लोग भी नमक को खरीद बिक्री की स्वतंत्रता से ही संतुष्ट होके आगे न बढ़े। इसीलिये उनकी काली करतूतों a