पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/९९

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(४४) होती है कि देहातों में जब पशु मरते हैं तो "आमतौर से मुर्दार मांस खाने वाले लोग उन्हें उंठा ले जाते और उनका चमड़ा निकाल के बेंच देते हैं। पशु वालों को ज्यादे से ज्यादा एकाध जोड़े जूते दे दिया करते हैं या कहीं-कहीं बँधे-बँधाये दो चार आने पैसे । यही तरीका सर्वत्र चालू है। बचपन से ही मेरा ऐसा अनुभव है। मगर उत्तरी बिहार के पूर्वी जिलों में कुछ उलटी बात पाई जाती है। चौधरी के सिवाय महाराजा दरभंगा की जमींदारी में पूर्णियाँ आदि में भी मुझे पता चला है कि बड़े जमींदार इन चमड़ों का एक खासतौर का बन्दोबस्त करते हैं जिसे 'चरसा महाल' कहा जाता है। उससे होने वाली श्रामदनी को चरसा महाल की आमदनी कहते हैं। तरीका यह होता है कि पशुत्रों से चमड़े निकालने के बाद निकालने वाला चाहे जिसी के हाथ बेंच नहीं सकता। किन्तु जमींदार को साल में हजारों रुपये देके इन चमड़ों की खरीद के ठेकेदार हर इलाके में एक, दो, चार मुकरर होते हैं और वही ये चमड़े खरीद सकते हैं । अगर दूसरे लोग खरीदे या दूसरों के यहाँ चमड़े वाले बेंच दे तो दण्ड के भागी बन जाते हैं । इस प्रकार खरीदार लोग रुपये दो रुपये के चमड़े को भी दोई चार पाने में पा जाते हैं । बैंचने वाले को तो गर्ज होती ही है और दूसरा खरीदार न होने पर गर्ज का बावला जोई मिले उसी दाम पर बेचता है । इस प्रकार हजारों गरीबों को लूट कर चन्द ठेकेदार और जमींदार अपनी जेबें गर्म करते हैं। यही तरीका चौधरी की जमींदारी में भी था। इस चरसा महाल के खिलाफ हमारा आन्दोलन सभी जमींदारियों में हुा । मगर चौधरी की जमींदारी में हमारे तीन-चार दौरे हुए और बहुत ज्यादे मीटिंगे हुई । वहाँ किरासन तेल और मुँगठी मछली वाला सवाल भी था। इसलिये वहाँ का आन्दोलन बहुत ही जोरदार हुया । लोग दवे भी थे सबसे ज्यादा । हमने वैसा या उससे भी दवा इलाका विहार में एक ही और पाया है। वह है महाराना दरभंगा की हो जमींदारी में दरभगा जिले के ही पंडरी परगने का इलाका । वह भी इसी प्रकार बारह महीने पानी में इबा रहता है और प्रायः तथा कथित छोटी जाति के ही लोग वहाँ बसते