( ४५ ) हैं। इसीलिये चौधरी की जमींदारी की ही तरह हमारे आन्दोलन की गति वहाँ भी खूब तेज थी। दो तीन बार हम खुद गये। नतीजा हुआ कि वहाँ के गरीब भी उठ खड़े हुए। यही हालत बखतियारपुर की जमींदारी में भी हुई और हमें पता लगा कि किरासन तेल आदि सभी चीजों का एकाधिकार -खत्म हो गया। चौधरी की तेजी ऐसी थी कि वह हमारा वहाँ जाना बर्दाश्त कर नहीं सकता था। संभा के लिये कोई जगह हमें न मिले और न ठहरने ही के लिये यह भी उसने किया। कार्यकर्ताओं ने जो अाश्रम बनाया था उसे भी तोड़ डालने की भरपूर कोशिश उसने को । मगर इन कोशिशों में वह सदा विफल रहा। हमें भी वहाँ जाने की एक प्रकार सी जिद हो गई एक बार तो सलखुवा गाँव में हमारी मीटिंग होने को थी। मगर उसने कोशिश करके नाहक हम पर १४४ की नोटिश ऐन मौके पर करवा दी। फिर भी मीटिंग तो हुई हो। उसके पेट में हमारे नाम से गोया ऊँट कूदने लगता था । हिन्दू-मुसलिम प्रश्न को भी अपने फायदे के लिये उठाता था, -मगर मुसलमानों का दनाने के ही समय । वह चाहता था कि हिन्दू उनको मदद न करें। पर हमने हिन्दुओं को सजग कर दिया कि ऐसी भूल लोग न करें। . !. .
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