पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कुँवर उदयभान चरित।


साम्हने आई तो उसका जी लोट पोट हुआ उस हिरनीके पीछे सबको छोड़छाड़ कर घोड़ा फेंका भला कोई धोड़ा उसको पा सकता था? जव सूरज छुपगया और हिरनी आंखोंसे ओझलहुई तबतो यह कुँवर उदयभान भूखा प्यासा और उदासा अँभाइयां और अंगड़ाइयां लेता हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने इतनेमें कुछ अमरइयां ध्यान चढ़ी उधर चलनिकला तो क्या देखता है चालीस पचास रण्डियां एकसे एक जोवनमें अगली झूळा डाले हुए पड़ी झूलरही हैं और सावन गातियां हैं जो उन्हों ने उसको देखा तू कौन तू कौंनकी चिंघाड़सी पड़गई।

दोहा। कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई थी कहती एक पक्का है।।

उन सवोंमेंसे एकके साथ इसकी आंख लड़गयी। वही झूलने वाली लाल जोड़ा पहनेहुए जिसको सबरानी केतकी कहते थे उसकेभी जीमें इसकी चाहने घरकिया पर कहने सुन्ने को उसने बहुतसी नाहनूहकी इस लग चलनेको भला क्या कहतेहैं और कहा जो तुमझटसे टपकपड़े यह न जाना जो यहां रण्डियां अपने झूलरही हैं अजी तुम जो इस रूप के साथ बेधड़क चलेआये हो! ठण्डी ठण्डी छांह चले जाओ। तब उन्हों ने मसोस के मलोळा खाके कहा इतनी रुखाइयां न दीजिये। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छांह में ओस का बचाव करके पड़ रहूंगा बड़े तड़के धुन्धलके उठकर जिधर मुंह पड़ेगा चला जाऊंगा। किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड़ कर घोड़ा फेंका था जब तळक उजाला रहा उसी के ध्यान में था। जब अंधेरा छागया और जी बहुत घबरागया इन अमरइयों का आसरा ढूंढ़कर यहां चला आया हूं। कुछ रोक टोक तो न थी जो माथा ठनक जाता और रुक रहता। सिर उठाये हांपता हुआ चला आया