पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१४

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कुँवर उदयभान चरित।


क्या जानता था पद्मनियां यहां पड़ी झूलती पींगें चढ़ा रहीं हैं पर योंही बदी थी बरसों मैं भी झूला करूंगा। यह बात सुनकर जो लाल जोड़े वाली सब की सिरधरी थी उसने कहा हां जी बोलियां ठोळियां न मारो। इन को कह दो जहां जी चाहे अपने पड़ रहें और जो कुछ खाने पीने को मागे सो इन्हें पहुंचा दो। घर आये को किसी ने आज तक मार नहीं डाला इनके मुंह का डौल गाल तमतमाये और होंठ पड़पड़ाये और घोड़े का हांपना और जी का कांपना और घबराहट और थरथराहट और ठण्डी सांसें भरना और निढाल होकर गिरे पड़ना इनको सच्चा करता है। बात बनाई और सचौटी की कोई छुपती है! पर हमारे और इनके बीच में कुछ ओटसी कपड़े लत्ते की कर दो। इतना आसरा पाके सब से परे कोने में जो पांच सात छोटे छोटे पौदे से थे उनकी छांह में कुंवर उदयभान ने अपना बिछोना किया सिरहाने हाथ धरके चाहता था सो रहे पर नींद कहीं चाहत की लगावट में आती थी? पड़ा पड़ा अपने जी से बातें कर रहा था। इतने में क्या होता है जो रात सांय सांय बोळने लगती है और साथ बालियां सब सो रहती हैं रानी केतकी अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहती है अरी तूने कुछ सुना है मेरा जी उस पर आगया और किसी डौल से नहीं थम सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब जो होनी हो सो हो। सिर रहता रहे जाता जाय मैं उस के पास जाती हूं। तू मेरे साथ चल पर तेरे पांव पड़ती हूं कोई सुनने न पावे। अरी यह मेरा जोड़ा मेरे और उस के बनानेवाळे ने मिळा दिया। मैं इसी लिये इन अमरइयों में आयी थी। रानी केतकी मदनबान का हाथ पकड़े वहां आ पहुंचती है जहां कुंवर उदयभान लेटे हुए कुछ सोच में पड़े पड़े बड़बड़ा रहे