पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कुँवर उदयभान चरित।


चुकी थी पिछळे पहरसे रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आयी थीं उधर चली गयीं और कुँवर उदयभान अपने घोड़ेकी पीठ लगकर अपने लोगोंसे मिळके अपने घर पहुंचे॥ कुंवरजीका अनूप रूप क्या कहूं। कुछ कहनेमें नहीं आता। खाना न पीना न लगचलना न किसी से कुछ कहना न सुन्ना जिस ध्यानमें थे उसीमें गुथे रहना और घड़ी २ कुछ २ सोच २ सिर धुन्ना। होते २ इस बात की ळोगोंमें चर्चा फैल गयी। किसी किसीने महाराज और महारानी से भी कहा कुछ दालमें काला है। वह कुँवर उदयभान जिससे तुम्हारे घरका उजाला है इन दिनों कछ उसके बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं। घरसे बाहर पांव नहीं धरता। घरवालियां जो किसी डौलसे बहलातियां हैं तो कछु नहीं करता एक ऊंची सांसलेता है और जो बहुत किसीने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुहँ लपेट के आठ आठ आंसू पड़ा रोता है। यह सुनतेही मा बाप कुँवरके पास दौड़े आये। गले लगाया मुंह चूमा पांव पर बेटेके गिरपड़े हाथ जोड़े और कहा जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं क्या दुखड़ा है जो पड़े पड़े कराहते हो राजपाट जिसको चाहो देडालो कहो तो तुम क्या चाहते हो तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह है क्या जो हो नहीं सकता मुंह से बोलो जी खोलो जो कहने में कछ सुचकते हो तो अभी लिख भेजो जो कछ लिखोगे ज्यों की त्यों वही कर तुम्हें दियेजावेंगे जो तुम कहो कूये में गिरपड़ो तो हम दोनों अभी कूयेमें गिरपड़ते हैं। कहो सिर काटडालो तो सिर अपने काट डालतेहैं कुंवर उदयभान वह जो बोलतेही न थे लिखभेजनेका आसरा पाके इतना बोले अच्छा आप सिधारिये मैं लिख भेजता हूं पर मेरे उस लिखभेजनेको मेरे मुंहपर किसी ढबसे न लाना। नहीं तो मैं बहुत लजा