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कुँवर उदयभान चरित।

हम नहिं हंसने रुकते जिसका जी चाहे हंसे।
है वही अपनी कहावत आफँसे जी आफँसे॥
अब तो अपने पीछे सारा झगड़ा झांटा लग गया।
पांव का क्या ढूंढती है जी में कांटा लग गया॥

मदनबान से कुछ रानी केतकी के आंसू पुछते से चले उनने यह बात ठहरायी जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजड़े हुए मा बाप को चुपचाप यहीं ले आउं और उन्हीं से इस बात को ठहराऊं गुसांईं महेन्दरगिर जिसके यह सब करतूत हैं वह भी उन्हीं दोनों उजड़े हुओं की मुट्ठी में हैं अभी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढ़े तो गये हुए दिन फिर फिर सकते हैं पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं हम क्या पड़े बकते हैं मैं इस पर बीड़ा उठाती हूं बहुत दिनों में रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने मा बाप के पास भेजा और चिट्ठी लिख भेजी जो आप से कुछ हो सके तो उस जोगी से यह ठहराके आवें।

महाराज और महारजी के पास मदनवान का
फिर आना और चित चाही बात सुनाना।

मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड़कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड़ पर बैठे हुए थे वहां झट से आदेस करके आ खड़ी होती है और कहती है लीजे आप का घर नये सिर से बसा और अच्छे दिन आये रानी केतकी का एक बाल भी बीका नहीं हुआ उन्हीं के हाथ की चिट्ठी लायी हूं आप पढ़ लीजिये आगे जो चाहिये सो कीजिये। महाराज ने उसी बाघम्बर में से एक रोंघटा तोड़-