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कुँवर उदयभान चरित।
दोहे अपनी बोली के।
घर बसा जिस रात उन्हों का तब मदनबान उस घड़ी।
कहगई दुल्हे दुल्हन को ऐसी सौ बातें कड़ी॥
बास पाकर केवड़े की केतकी का जी खिला।
सच है इन दोनों जनों को अब किसी की क्या पड़ी॥
क्या न आयी लाज कुछ अपने पराये की अजी।
थी अभी इस बात की ऐसी अभी क्या हड़बड़ी॥
दुलहन ने अपनि घूघँट से कहा।
जी में आता है तेरी होठों को मल डालूं अभी।
बस वे अय रण्डी तेरी दांतों की मिस्सी की धड़ी॥
एङ्गलो ओरियन्टल प्रेस लखनऊ. मार्च १९०५