बटाने के लिए हमारा अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी है। इल्म और हुनर और ख़यालात में जो इनक़लाब होते रहते हैं, उनके वाक़िफ़ होने के लिए भी अंग्रेज़ी ज़ुबान सीखना लाज़िमी हो गया है। ज़ाती शोहरत और तरक्की की सारी कुंजियाँ अंग्रेज़ी के हाथ में हैं और कोई भी उस खजाने को नाचीज़ नहीं समझ सकता। दुनिया की तहज़ीबी या सांस्कृतिक विरादरी में मिलने के लिए अंग्रेज़ी ही हमारे लिए एक दरवाज़ा है और उसकी तरफ़ से हम आँख नहीं बन्द कर सकते; लेकिन हम दौलत और अख़्बियार की दौड़ में, और बेतहाशा दौड़ में क़ौमी भाषा की ज़रूरत बिल्कुल भूल गये और उस ज़रूरत की याद कौन दिलाता? आपस में तो अंग्रेज़ी का व्यवहार था ही, जनता से ज़्यादा सरोकार था ही नहीं, और अपनी प्रान्तीय भाषा से सारी ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं। क़ौमी भाषा का स्थान अंग्रेज़ी ने ले लिया और उसी स्थान पर विराजमान है। अंग्रेज़ी राजनीति का, व्यापार का, साम्राज्यवाद का, हमारे ऊपर जैसा आतंक है, उससे कहीं ज़्यादा अंग्रेज़ी भाषा का है। अंग्रेज़ी राजनीति से, व्यापार से, साम्राज्यवाद से तो आप बग़ावत करते हैं; लेकिन अंग्रेज़ी भाषा को आप गुलामी के तौक़ की तरह गर्दन में डाले हुए हैं। अंग्रेज़ी राज्य की जगह आप स्वराज्य चाहते हैं। उनके व्यापार की जगह अपना व्यापार चाहते हैं; लेकिन अंग्रेज़ी भाषा का सिक्का हमारे दिलों पर बैठ गया है। उसके बग़ैर हमारा पढ़ा-लिखा समाज़ अनाथ हो जायगा। पुराने समय में आर्य और अनार्य्य का भेद था, आज अंग्रेज़ीदाँ और गैर-अंग्रेज़ीदाँ का भेद है। अंग्रेज़ीदाँ आर्य्य है। उसके हाथ में, अपने स्वामियों की कृपा-दृष्टि की बदौलत कुछ अख़्तयाय है, रोब है, सम्मान है; ग़ैर-अंग्रेज़ीदाँ अनार्य है और उसका काम केवल आर्य्यो की सेवा-टहल करना है और उनके भोग-विलास और भोजन के लिए सामग्री जुटाना है। यह आर्य्यवाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है, दिन-दूना रात चौगुना। अगर सौ-दो सौ साल में भी वह सारे भारत में फैल जाता, तो हम कहते बला से, विदेशी ज़ुबान है, हमारा काम तो चलता है; रेकिन इधर तो हज़ार-दो हज़ार साल में भी उसके
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