करीब २४-२५ करोड़ आदमी हिन्दुस्तानी भाषा समझ सकते हैं। यह क्या दुःख की बात नहीं कि वे, जो भारतीय जनता की वकालत के दावेदार हैं, वह भाषा न बोल सकें और न समझ सकें, जो पचीस करोड़ की भाषा है, और जो थोड़ी-सी कोशिश से सारे भारतवर्ष की भाषा बन सकती है? लेकिन अंग्रेज़ी के चुने हुए शब्दों और महाविरों और मँजी हुई भाषा में अपनी निपुणता और कुशलता दिखाने का रोग इतना बढ़ा हुआ है कि हमारी क़ौमी सभाओं में सारी कार्रवाई अँग्रेज़ी में होती है, अँग्रेज़ी में भाषण दिये जाते हैं, प्रस्ताव पेश किये जाते हैं सारी लिखा-पढ़ी अँग्रेज़ी में होती है, उस संस्था में भी, जो अपने को जनता की संस्था कहती है। यहाँ तक कि सोशलिस्ट और कम्यूनिस्ट भी, जो जनता के ख़ासुलख़ास झंडे-बरदार हैं, सभी कार्रवाई अँग्रेज़ी में करते हैं। जब हमारी क़ौमी संस्थाओं की यह हालत है, तो हम सरकारी महकमों और युनिवर्सिटियों से क्या शिकायत करें? मगर
२०० वर्ष तक अँग्रेज़ी पढ़ने-लिखने और बोलने के बाद भी एक हिन्दुस्तानी भी ऐसा नहीं निकला, जिसकी रचना का अँग्रेज़ी में आदर हो। हम अँग्रेज़ी भाषा की ख़ैरात खाने के इतने आदी हो गये हैं कि अब हमें हाथ-पाँव हिलाते कष्ट होता है। हमारी मनोवृत्ति कुछ वैसी ही हो गई है, जैसी अक्सर भिखमंगों की होती है जो इतने आराम-तलब हो जाते हैं कि मजदूरी मिलने पर भी नहीं करते। यह ठीक है कि कुदरत अपना काम कर रही है और जनता क़ौमी भाषा बनाने में लगी हुई है। उसका अंग्रेज़ी न जानना, क़ौम की भाषा के लिए अनुकूल जलवायु दे रहा है। इधर सिनेमा के प्रचार ने भी इस समस्या को हल करना शुरू
कर दिया है और ज्यादातर फिल्में हिन्दुस्तानी भाषा में ही निकल रही हैं। सभी ऐसी भाषा में बोलना चाहते हैं, जिसे ज़्यादा-से-ज़्यादा आदमी समझ सकें, लेकिन जब जनता अपने रहनुमाओं को अंग्रेज़ी में बोलते और लिखते देखती है, तो क़ौमी भाषा से उसे जो हमदर्दी है, उसमें ज़ोर का धक्का लगता है, उसे कुछ ऐसा ख़्याल होने लगता है कि क़ौमी भाषा कोई ज़रूरी चीज़ नहीं है। जब उसके नेता, जिनके
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