सकेगा। यह भी ज़ाहिर है कि एक प्रान्त या एक भाषा के बोलनेवाले क़ौमी भाषा नहीं बना सकते। क़ौमी भाषा तो तभी बनेगी, जब सभी प्रान्तों के दिमाग़दार लोग उसमें सहयोग देंगे। सम्भव है कि दस-पाँच साल भाषा का कोई रूप स्थिर न हो, कोई पूरब जाय कोई पश्चिम; लेकिन कुछ दिनों के बाद तूफान शान्त हो जायगा और जहाँ केवल धूल और अन्धकार और गुबार था, वहाँ हरा-भरा साफ-सुथरा मैदान निकल आयेगा। जिनके क़लम में मुर्दों को जिलाने और सोतों को जगाने की ताक़त है, वे सब वहाँ विचरते हुए नज़र आयेंगे। तब हमें टैगोर, मुन्शी, देसाई और जोशी की कृतियों से आनन्द और लाभ उठाने के लिए मराठी और बँगला या गुजराती न सोखनी पड़ेगी। क़ौमी भाषा के साथ क़ौमी साहित्य का उदय होगा और हिन्दुस्तानी भी दूसरी सम्पन्न और सरसब्ज़ भाषाओं की मजलिस में बैठेगी। हमारा साहित्य प्रान्तीय न होकर क़ौमी हो जायगा। इस अँग्रेज़ी प्रभुत्व की यह बरकत है कि आज एडगर वैलेस, गाई बूथवी जैसे लेखकों से हम जितने मानूस हैं, उसका शतांश भी अपने शरत और मुन्शी और 'प्रसाद' की रचनाओं से नहीं। डॉक्टर टैगोर भी अँग्रेज़ी में न लिखते, तो शायद बंगाली दायरे के बाहर बहुत कम आदमी उनसे वाकिफ होते; मगर कितने खेद की बात है कि महात्मा गान्धी के सिवा किसी भी दिमाग़ ने क़ौमी भाषा की ज़रूरत नहीं समझी और उस पर ज़ोर नहीं दिया। यह काम क़ौमी सभाओं का है कि वह क़ौमी भाषा के प्रचार के लिए इनाम और तमग़े दें, उसके लिए विद्यालय खोलें, पत्र निकालें और जनता में प्रोपेगैंडा करें। राष्ट्र के रूप में संघटित हुए बग़ैर हमारा दुनिया में ज़िन्दा रहना मुश्किल है। यक़ीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता कि इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन सी है। मगर दूसरी क़ौमों के साथ क़ौमी भाषा देखकर सिद्ध होता है कि क़ौमियत के लिए लाज़िमी चीज़ों में भाषा भी है और जिसे एक राष्ट्र बनाना है, उसे एक क़ौमी भाषा भी बनानी पड़ेगी। इस हक़ीक़त को हम मानते हैं; लेकिन सिर्फ़ ख़्याल में। उस पर अमल करने का
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