पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/१४३

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हममें साहस नहीं है। यह काम इतना बड़ा और मार्के का है कि इसके लिए एक ऑल इण्डिया संस्था का होना ज़रूरी है जो इसके महत्त्व को समझती हुई इसके प्रचार के उपाय सोचे और करे।

लिपि का सवाल

भाषा और लिपि का सम्बन्ध इतना क़रीबी है कि आप एक को लेकर दूसरे को छोड़ नहीं सकते। संस्कृत से निकली हुई जितनी भाषाएँ हैं, उनको एक लिपि में लिखने में कोई बाधा नहीं है, थोड़ा-सा प्रांतीय संकोच चाहे हो। पहले भी स्व॰ बाबू शारदाचरण मित्रा ने एक 'लिपि-विस्तार-परिषद्' बनाई थी और कुछ दिनों तक एक पत्र निकालकर वह आन्दोलन चलाते रहे; लेकिन उससे कोई ख़ास फायदा न हुआ। केवल लिपि एक हो जाने से भाषाओं का अन्तर कम नहीं होता और हिन्दी लिपि में मराठी समझना उतना ही मुश्किल है, जितना मराठी लिपि में। प्रान्तीय भाषाओं को हम प्रान्तीय लिपियों में लिखते जायँ, कोई एतराज़ नहीं, लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के लिए हिन्दी लिपि रखना ही सुविधा की बात है; इसलिए नहीं कि हमें हिन्दी लिपि से ख़ास मोह है; बल्कि हिन्दी लिपि का प्रचार बहुत ज़्यादा है और उसके सीखने में भी किसी को दिक्कत नहीं हो सकती। लेकिन उर्दू लिपि हिन्दी से बिल्कुल जुदा है। और जो लोग उर्दू लिपि के आदी हैं, उन्हें हिन्दी लिपि का व्यवहार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। अगर ज़बान एक हो जाय, तो लिपि का भेद कोई महत्त्व नहीं रखता। अगर उर्दूदाँ आदमी को मालूम हो जाय कि केवल हिन्दी अक्षर लिखकर वह डा॰ टैगोर या महात्मा गान्धी के विचारों को पढ़ सकता है, तो वह हिन्दी सीख लेगा। यू॰ पी॰ प्राइमरी स्कूलों में तो दोनों लिपियों की शिक्षा दी जाती है। हर एक बालक उर्दू और हिन्दी की वर्णमाला जानता है। जहाँ तक हिन्दी लिपि पढ़ने की बात है, किसी उर्दूदाँ को एतराज़ न होगा। स्कूलों में हफ्ते में एक घण्टा दे देने से हिन्दीवालों को उर्दू और उर्दूवालों को हिन्दी लिपि सिख