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पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/७७

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:: कुछ विचार ::
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के किसान भी अगर ज़्यादा नहीं समझते, तो साधारण पढ़े-लिखों के बराबर तो समझ ही लेते हैं। इसी तरह अन्य विषयों की चर्चा भी जनता के सामने होती रहती तो हमें यह शिकायत न होती कि जनता हमारे विचारों को समझ नहीं सकती। मगर हमने जनता की परवाह ही कब की है? हमने केवल उसे दुधार गाय समझा है। वह हमारे लिए अदालतों में मुक़दमें लाती रहे, हमारे कारख़ानों की बनी हुई चीज़ें ख़रीदती रहे। इनके सिवा हमने उससे कोई प्रयोजन नहीं रखा, जिसका नतीज़ा यह है कि आज जनता को अंग्रेज़ों पर जितना विश्वास है उतना अपने पढ़े-लिखे भाइयों पर नहीं।

संयुक्त-प्रान्त के साबिक़ से पहले के गवर्नर सर विलियम मैरिस ने इलाहाबाद की हिन्दुस्तानी एकेडेमी खोलते वक़्त हिन्दी-उर्दू के लेखकों को जो सलाह दी थी, उसे ध्यान में रखने की आज भी उतनी ही ज़रूरत है, जितनी उस वक़्त थी, शायद और ज़्यादा। आपने फ़रमाया, क्या हिन्दी के लेखकों को लिखते वक़्त यह समझते रहना चाहिये कि उनके पाठक मुसलमान हैं? इसी तरह उर्दू के लेखकों को यह ख़याल रखना चाहिए कि उनके क़ारी हिन्दू हैं।

यह एक सुनहरी सलाह है और अगर हम इसे गाँठ बाँध लें, तो ज़बान का मसला बहुत कुछ तय हो जाय। मेरे मुसलमान दोस्त मुझे माफ़ फ़रमायें अगर मैं कहूँ कि इस मुआमले में वह हिन्दू-लेखकों से ज़्यादा ख़तावार हैं। संयुक्त प्रांत की कॉमन लैंग्वेज रीडरों को देखिये। आप सहल क़िस्म की उर्दू पायेंगे। हिन्दी की अदबी किताबों में भी अरबी और फ़ारसी के सैकड़ो शब्द धड़ल्ले से लाये जाते हैं, मगर उर्दू-साहित्य में फ़ारसीयत की तरफ ही ज़्यादा झुकाव है। इसका सबब यही है कि मुसलमानों ने हिन्दी से कोई ताल्लुक नहीं रखा है, और न रखना चाहते हैं। शायद हिन्दी से थोड़ी सी वाक़फ़ियत हासिल कर लेना भी वह ब सरे-शान समझते हैं, हालाँकि हिन्दी वह चीज़ है, जो एक हफ़्ते में आ जाती है। जब तक दोनों भाषाओं का मेल न होगा, हिन्दुस्तानी ज़बान की गाड़ी जहाँ आकर रुक गई है उससे आगे न बढ़