पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/७८

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:: कुछ विचार ::
 

सकेगी। और यह सारी करामात फ़ोर्ट विलियम की है जिसने एक ही ज़बान के दो रूप मान लिये। इसमें भी उस वक़्त कोई राजनीति काम कर रही थी या उस वक़्त भी दोनों ज़बानों में काफ़ी फ़र्क़ आ गया था, यह हम नहीं कह सकते, लेकिन जिन हाथों ने यहाँ की ज़बान के उस वक़्त दो टुकड़े कर दिये उसने हमारी क़ौमी ज़िन्दगी के दो टुकड़े कर दिये। अपने हिन्दू दोस्तों से भी मेरा यही नम्र निवेदन है कि जिन शब्दों ने जन-साधारण में अपनी जगह बना ली है, और उन्हें लोग आपके मुँह या क़लम से निकलते ही समझ जाते हैं, उनके लिए संस्कृतकोष की मदद लेने की ज़रूरत नहीं। 'मौजूद' के लिए 'उपस्थित', 'इरादा' के लिए 'संकल्प', बनावटी के लिए 'कृत्रिम' शब्दों को काम में लाने की कोई खा़स ज़रूरत नहीं। प्रचलित शब्दों को उनके शुद्ध रूप में लिखने का रिवाज भी भाषा को अकारण ही कठिन बना देता है। खेत को क्षेत्र, बरस का वर्ष, छेद को छिद्र, काम को कार्य, सूरज को सूर्य, जमना को यमुना लिखकर आप मुँह और जीभ के लिए ऐसी कसतर का सामान रख देते हैं जिसे ९० फ़ी सदी आदमी नहीं कर सकते। इसी मुशकिल को दूर करने और भाषा को सुबोध बनाने के लिए कवियों ने ब्रजभाषा और अवधी में शब्दों के प्रचलित रूप ही रखे थे। जनता में अब भी उन शब्दों का पुराना बिगड़ा हुआ रूप चलता है, मगर हम विशुद्धता की धुन में पड़े हुए हैं।

मगर सवाल यह है, क्या इस हिन्दुस्तानी में क्लासिकल भाषाओं के शब्द लिये ही न जायँ? नहीं, यह तो हिन्दुस्तानी का गला घोट देना होगा। आज साएंस की नई-नई शाखें निकलती जा रही हैं और नित नये-नये शब्द हमारे सामने आ रहे हैं, जिन्हें जनता तक पहुँचाने के लिए हमें संस्कृत या फ़ारसी की मदद लेनी पड़ती है! क़िस्से-कहानियों में तो आप हिन्दुस्तानी ज़बान का व्यवहार कर सकते हैं, वह भी जब आप गद्य-काव्य न लिख रहे हों, मगर आलोचना या तंक़ीद, अर्थशास्त्र, राजनीति, दर्शन और अनेक साएंस के विषयों में क्लासिकल भाषाओं से मदद लिये बग़ैर काम नहीं चल सकता। तो क्या संस्कृत और