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पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/८६

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:: कुछ विचार ::
 

हैं? यूरोपियन विद्वानों को देखिए। उन्होंने हिन्दुस्तान के मुतअल्लिक हरेक मुमकिन विषय पर तहक़ीक़ातें की हैं, पुस्तकें लिखी हैं, वह हमें उससे ज़्यादा जानते है जितना हम अपने को जानते हैं। उसके विपरीत हम एक दूसरे से अनभिज्ञ रहने ही में मग्न हैं। साहित्य में जो सबसे बड़ी ख़ूबी है वह यह है कि वह हमारी मानवता को दृढ़ बनाता है, हममें सहानुभूति और उदारता के भाव पैदा करता है। जिस हिन्दू ने कर्बला की मारके की तारीख़ पढ़ी है, यह असम्भव है कि उसे मुसलमानों से सहानुभूति न हो। उसी तरह जिस मुसलमान ने रामायण पढ़ा है, उसके दिल में हिन्दू मात्र से हमदर्दी पैदा हो जाना यक़ीनी है। कम-से-कम उत्तरी हिन्दुस्तान में हरेक शिक्षित हिन्दू-मुसलिम को अपनी तालीम अधूरी समझनी चाहिये, अगर वह मुसलमान है तो हिन्दुओं के और हिन्दू है तो मुसलमानों के साहित्य से अपरिचित है। हम दोनों ही के लिए दोनों लिपियों का और दोनों भाषाओं का ज्ञान लाज़मी है। और जब हम ज़िन्दगी के पंद्रह साल अँगरेज़ी हासिल करने में कुरबान करते हैं तो क्या महीने-दो-महीने भी उस लिपि और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने में नहीं लगा सकते जिस पर हमारी क़ौमी तरक़्क़ी ही नहीं, क़ौमी ज़िन्दगी का दारमदार है?

 


☆ आर्यसमाज के अन्तर्गत आर्यभाषा सम्मेलन के वार्षिक अवसर पर लाहौर में दिया गया भाषण।