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पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/१०

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कुमारसम्भवसार।
प्रथम सर्ग।

दिव्य दिशा उत्तर में शोभित देवात्मा का अधिकारी,
भूधरपति अति पृथुल हिमालय हिममण्डितमस्तकधारी।
पूर्व और पश्चिम पयोधि के बीच बढ़ा कर तनु भारी,
महीमाप के दण्ड तुल्य है रक्खा बहु विस्मयकारी॥

रत्न और ओषधियाँ जिसमें चमक रहीं नित बहुतेरी,
नहीं न्यून उसकी शोभा को कर सकती हिम की ढेरी।
चन्द्रबिम्ब के भीतर जैसे नहीं कलङ्क दिखाता है।
तैसेही गुणगण-समुद्र में एक दोष छिप जाता है॥

शृङ्गों पर, अकाल-सन्ध्या-सम, धातु विचित्र बिछाता है,
उससे जो अप्सरावर्ग को भूषणयुक्त बनाता है।
रश्मिराशि दिनकर की जिसके शिखरों पर छबि पाती है,
अधोभाग में मेघमण्डली जलधारा बरसाती है॥

हिम-धोई महि में गज-मुक्ता देख जहाँ पर बिखराये,
कहते हैं किरात "गज-हन्ता सिंह इसी मारग आये"।
बाँस-वृक्ष के छेदों में जो भर समीर न्यारी न्यारी,
गायक किन्नर-गण को देता मानों ताल परम प्यारी॥