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पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/११

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(२)


गेरू से लिख भोजपत्र पर जहाँ अनङ्ग-देव-सन्देश,
विद्याधरसुन्दरी भेजती हैं पिय-पास विशेष विशेष!
जहाँ रात में विपननिवासी ओषधियाँ रख दीप-समान,
करते हैं, उनके प्रकाश में, केलिकला के विविध विधान॥

करि-कपोल-ताड़ित-सालद्रुम-दुग्ध-गन्ध की अधिकाई,
जिसकी शिखरमालिका को अति सुरभित करती, सुखदा जमे हुए शीतल हिम पर भी, जिल गिरि में, किन्नर नारी,
चलती हैं मन्दही लिये निज-कुच-नितम्ब-बोझा भारी॥

रवि के भय, उलूक सम, दिन में, अन्धकार जब आता है,
अपनी गुहा बीच रख, जो गिरि, उसके प्राण बचाता है
महा-नीच भी शरणागत को, जन महान वर-विज्ञानी,
अभय दान देते हैं, तत्क्षण, कहते हुए मृदुल बानी॥

जिस पर्वत पर किन्नरबाला जब रतिसमर मचाती हैं,
वस्त्र खींचने से, लज्जावश, सकुच सकुच रह जाती हैं।
गुहाद्वार पर अनायास, जब आँखें उनकी आती हैं,
लटके देख मेघ, परदे सम, सब सङ्कोच मिटाती है॥

सुरागाय अपनी पूँछों से जिस पर चमर चलाती हैं,
"है यह महीधरों का राजा—" यह मानों बतलाती हैं।
थके किरात जहाँ पाते हैं सुरसरि कण-लानेवाला,
विमल वायु, जिसने की कम्पित देवदारु-तरुवर-माला॥

१०

जिसके उच्च-शिखर-गत-जल के कमलों को, नीचे रह कर,
नित्य ऊर्ध्वगामी किरणों से विकसित करता है दिनकर॥