सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१४)

३३

वे परम ज्योतिमय देव तमोगुण-हीन;

जाने गति उनकी विष्णु और हम भी न।
उनका मन तप में लीन, उमा के द्वाग,

तुम खींचो, खींचे * अयस्कान्त ज्यों सारा

३४

तेजोमय शिव का बीज रिपुक्षय कारण,

कर सकती केवल एक उमा ही धारण।
तत्सुत बन सेनाधीश बलिष्ठ तुम्हारा,

खोलेगा बन्दी देववधू-कच-भारा॥

३५

इस भाँति, इधर, कह, हुए लोप लोकेश;

सुर गये, उधर, सुरलोक, सहित देवेश।
सुरपति ने जाके वहाँ, बिदा कर सुरगण,

मन ही मन चिन्तन किया काम का तत्क्षणा॥

३६

रम्य रमणी की अति ही बाँकी भृकुटी-लता समान,

तिकङ्कण-अङ्कित स्वकण्ठ में सन्जित कर, सौन्दर्य-निध
वसन्त-हाथ में देकर आममञ्जरी-रूपी बाण,

गया, तब, सम्मुख सुरेश के, प्रणत पुष्पधन्वा बन

इति द्वितीय सर्ग।

———:-०-:———


अयस्कांत--चुम्बक।

सार--लोहा।