(१३)
ज्यो लन्निपात में सब ओषधियाँ व्यर्थ;
त्यो तद्विनाश में नाथ! देव असमर्थ,॥
२८
हरि-चक्र न कुछ कर सका, कहैं क्या क्या हम,
उलटा वह उसका हुआ कण्ठभूषण सम।
पेरावत-विजयी द्विरद मत्त उसके सब
मेघों से टक्कर मार, खेलते हैं अब॥
२९
तन्नाश-हेत हे नाथ! एक सेनानी
हम चहते हैं अति शूर, वीर, बलखानी।
जिसके कर आगे, इन्द्र, विजयवाला वर,
वन्दीवन लावें छीन शत्रु से जाकर॥
३०
वाचस्पति की निःशेष हुई जब पानी,
विधि बोले, गर्जन-अन्त पड़े ज्यों पानी।
हे देव! तुम्हारा काम सफल सब भाँती;
पर स्वयं रचूँगा मैं न तारकाराती॥
३१
यह उसे हमीं से मिला विभव-विस्तारा;
फिर, कैसे उसका करें हमी संहारा?
विष-पादप भी यदि बड़ा किया जाता है,
उस पर भी नहीं कुठार दिया जाता है॥
३२
उसने तप अतिशय घोर किया मनमाना;
मुँहमांगा हमने दिया उसे वरदाना।
अतएव, छोड़ शिव-अंश, अन्य बलवाना,
सह सकता उसका नहीं एक भी बाणा॥