(१७)
धैर्य्य पिनाकपाणि हर का भी, कहिए, स्खलित करूँ देवार्थ;
और धनुष धरनेवाले सब मेरे सम्मुख तुच्छ पदार्थ!
११
पादपीठ को शोभित करते हुए इन्द्र ने, इतने पर,
जंघा से उतार कर अपना खिले कमल सम पद सुन्दर।
निज अभिलषित विषय में सुन कर मन्मथ का सामर्थ्य महा,
उससे अति-आनन्द-पूर्वक, समयोचित, इस भांति कहा॥
१२
सखे! सभी तू कर सकता है; तेरी शक्ति जानता हूँ;
तुझको और कुलिश को ही मैं अपना अस्त्र मानता हूँ।
तपोबली पुरुषों के ऊपर वज्र व्यर्थ हो ज्ञाता है;
मेरा तू अमोघ साधन है, सभी कहीं तू जाता है॥
१३
तेरा बल है विदित; तुझे मैं अपने तुल्य समझता हूँ;
बड़े काम में इसीलिए ही तब नियुक्ति मैं करता हूँ।
देख लिया जब यह कि शेष ने सिर पर भूमि उठाई है;
तभी विष्णु ने उस पर अपनी शय्या सुखद बनाई है॥
१४
यह कह कर कि सदाशिव पर भी चल सकता है शर तेरा,
मानो अङ्गीकार कर लिया काम! काम तूने मेरा।
यही इष्ट है; क्योंकि, शत्रु अब अति उत्पात मचाते हैं;
यज्ञभाग भी देववृन्द से छीन छीन ले जाते हैं॥
१५
जिसके औरस पुत्ररत्न को करके अपना सेनानी,
सुर विजयी होना चहते हैं, मार असुर सब अभिमानी।
वही महेश समाधिमग्न हैं, पास कौन जा सकता है?
तेरा विशिख तथापि एकही कार्य्य-सिद्धि कर सकता है॥