सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( १९ )
शिखा अग्नि की बढ़ा दीजिए है समीर! जीवनदाता'!

भला पवन से भी क्या कोई इस प्रकार कहने जाता?

२२


एवमस्तु कहकर, स्वमी के अनुशासन को अति-अभिराम;
मालावत मस्तक ऊपर रख, सादर चला वहां से काम।
ऐरावत की पीठ ठोकने से ककश कर को स्वच्छन्द,
सुरपति ने उसके शरीर पर फेरा कई बार सानन्द॥

२३


प्रिय बसन्त, प्रियतमा प्राणसम रति भी, दोनों निपट सशङ्क
मन्मथ के अनुगामी होकर चले साथ उसके सानङ्क।
मैं अवश्य सुरकार्य करूंगा, चाहे हो शरीर भी नाश"--
यह दृढ़ कर, हिमशैल-श्रृङ्ग पर गया अनङ्ग शिवाश्रम-पास॥

२४


उस आश्रमवाले अरण्य में थे जितने संयमी मुनीश,
उनके तपोभङ्ग में तत्पर हुआ वहाँ जाकर ऋतु-ईश।
मन्मथ के अभिमानरूप उस मधु ने अपना प्रादुर्भाव
चारों ओर किया कानन से, दिखलाया निज प्रबल प्रभाव॥

२५


यक्षराज। जिसका स्वामी है उसी दिशा की ओर प्रयाण
करते हुए देख दिनकर को, उल्लङ्कन कर समय-विधान।
मन में अति दु:खित सी होकर, हुआ समझ अपना अपमान
छोड़ा दक्षिण दिशा-वधू ने मलयानिल निश्वास-समान॥

२६


कामिनियों के मधुर-मधुर-रवकारक नव-नूपुर-धारी

पद से स्पर्श किये जाने की न कर अपेक्षा सुखकारी।

  • मधु = वसन्त। यक्षराज = कुबेर।</poem>