(२२)
आधे खाये हुए कमल क मञ्जुल तन्तुजाल देकर,
चक्रवाक ने किया प्रिया का आदर, अनुरागी होकर॥
३८
ऊँचे स्वर से गान-समय में, प्रचुर परिश्रम होने से,
कुछ कुछ बिगड़ गई जिस मुख पर पत्रावली पसीने से
पुष्पासव पीने से जिस पर घूम रहे दृग अरुणारे,
रसिक किन्नरों ने पत्नी के चूमे मुख ऐसे प्यारे॥
३९
फूले हुए नवल फूलों के गुच्छेरूपी कुचवाली,
हैं चञ्चल पल्लव ही जिनके अधर मनोहरताशाली।
ऐसी ललित-लता-ललनाओं से तरुओं ने भी पाया,
झुकी हुई शाखाओं के मिष भुजबन्धन अति मन भाया॥
४०
चतुर अप्सराओं का, इस क्षण, सुन कर भी मञ्जुल गाना,
आत्मा का चिन्तन ही करते रहे महेश्वर भगवाना।
जिन महानुभावों के वश में अपना मन हो जाता है,
तपोविघातक विघ्न कभी भी उनके पास न आता है॥
४१
लिये हुए निज वाम हस्त में अति अभिराम हेम का दण्ड,
लता भवन के भव्य द्वार पर गया हुआ नन्दी उद्दण्ड।
मुख पर उँगली रख धीरे से बोध ऐसे वचन विशेषः—
"हे गणवृन्द! करो न चपलता; मानो तुम मेरा आदेश"॥
४२
कम्पहीन सब हुए महोरुह; निश्चल हुए मधुप-समुदाय;
मूक हुए खग; शान्त हुए मृग, अपना आवागमन भुलाय
वह सारा अरण्य नन्दी का दुर्विलंध्य अनुशासन पाय,
तत्क्षण ही होगया चित्रवत्, स्वाभाविक भी नियम विहाय॥