पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/३८

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नारी के नैकट्य-त्याग की इच्छा से,सब भूत लिए,
भूतनाथ,अपने आश्रम से तत्क्षण अन्तर्धान हुए ।।

७५


अपनी ललित-शरीर-लता भी,उच्च पिता का भी अभिलाष,
व्यर्थ समर्थन कर दोनों को,मन में होती हुई हताश।
सखियों ने भी देख लिया सब इस दुर्घटना का व्यापार !
अतः अधिक लजित हेकर घर गई उमा भी,किसी प्रकार ।।

७६


कुपित रुद्र के सथ से अपनी आँख बन्द करनेवाली,
दयायोग्य कन्या को हाथों पर रख गिरिवर बलशाली।
लिये कमलिनी को दानों पर सुग्गज सम शोभाधारी,
देह बढ़ाता हुअा, बेग से, हुआ शीघ्र ही पथचारी *॥

इति तृतीय सर्ग ।


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अथ चतुर्थ सर्ग ।


विवश चेनना-हीन,विकल,विह्वल,बेहाला,
पड़ी रहीं कुछ काल कुसुक-शायक की बाला!
देने का वैधव्य-वदना अतिशय दुस्तर,
जागृत उसको किया वाम विधि ने तदनन्तर ‌।।


किया नयन-निक्षेप व्यथित रति ने जब उठ कर,
दृग्गोचर कर सकी न वह पति-रूप मनोहर ।
“जीते हा हे नाथ !" वचन यह कह विषाद-कर,
देखी पुरुषाकार भस्म उसने भूतल पर ।।


  • पथचारी =मार्गानुसरण करनवाला;मार्ग में सचार करनेवाया।