पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/६१

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जिनकी शरण विश्व,बुध जिनको निरभिलाष बतलाते हैं,
आशा से दूषित पदार्थ ये उनको नहीं लुभाते हैं ।।
७७
यदपि निर्धनी,तदपि सभी धन जन्म उन्हीं से पाते हैं,
लोकनाथ होकर मसान में वे नित रहने जाते हैं ।
भीम भेष धारण करके भी शिव सदैव कहलाते हैं,
शशि शेखर के पूरे ज्ञाता त्रिभुवन में न दिखाते हैं ।।
७८
आभूषण से भूषित;अथवा,भय-दायक-भुजङ्ग-धारी;
गज का चर्म लिये हैं;अथवा.मृदुल दुकूल मनोहारी
ब्रह्म-कपाल युक्त हैं,अथवा चन्द्रचूड़ हैं भगवाना;
विश्वमूर्ति उस विश्वेश्वर का मर्म नहीं जाता जाना ।।
७९
उस जगदीश्वर के शरीर से वह ज्योंही जाती है,
त्योंही रज अपवित्र चिता की अति पवित्र हो जाती है
नृत्य-समय,गिर कर उसके कण,भूतल पर जो आते हैं,
दिव्यदेवता उन्हें माल पर सादर सदा लगाते हैं ।।
८०
जो सुरपति प्रमत्त दिग्गज के ऊपर आता जाता है;
धन-विहीन उस वृष-वाहन को वह भी शीश नवाता:
उसके चरण-सरांरुह पर वह अपना मुकुट झुकाता है,
मृदु-मन्दार-पराग-पुञ्ज से उँगली अरुण बनाता है ।।
८१
व्यर्थ दोष कहने की इच्छा तुझ में यदपि समाई है,
एक बात शङ्कर-सम्बन्धी तूने सत्य सुनाई है।
ब्रह्मा का भी कारण जिनको बतलाते हैं विज्ञानी,
कैसे जान सकेगा उनका उद्भव तू हे अज्ञानी ।।