पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/६२

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तुने जैसा उन्हें सुना है वैसा होने दे नि:शेष,
करना नहीं चाहती हूं मैं तुझसे वाद-विवाद विशेष ।
मैं इनमें अनुरक्त एकही सरस भाव से भले प्रकार ;
स्वेच्छाचारी अन कलङ्क का करते नहीं कदापि विचार
८३
सखी! रोक यह फिर कहने की उत्सुकता दिखलाता है;
देख अधर अपना ऊपर का बार बार फड़काता है ।
सत्पुरुषों का निन्दक जन ही पातक नहीं कमाना है;
निन्दा का सुननेवाला भी अध-भागी हो जाता है ।।
८४
यह कह कर कि यहाँ से मैं ही उठ जाऊँगी,वह बाला
उठी सवेग,कुचों से खिसका पावन पट वल्कलवाला ।
अपना रूप प्रकट करके,तब,परमानन्दित हे,हंस कर,
पकड़ लिया लिज कर से उसको शङ्कर ने उस अवसर पर
८५
उनको देख,कम्पयुत धारण किये स्वेद के बूंद अनेक,
चलने के निमित्त ऊपर ही लिये हुए अपना पद एक।
शैल मार्ग में आ जाने से आकुल सरिता तुच्य नितान्त
पर्वत-सुता न चली, न ठहरी,हुई चित्र खींचोसी भ्रान्त।
८६
"हे नत-गात्रि ! आज इस दिन से मुझको अपना सेवक मान;
मोल ले लिया तूने तप से'-यों जब बोले शम्भु सुज्ञान
तत्क्षण हुआ शैल-तनया के प्रबल परिश्रम का परिहार;
क्लेश समूल भूल जाता है फल मिलने पर मनोनुसार