सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६३]
 

 

परिच्छेद २७
तप

सपविध हिंसा-त्याग कर, बनना करुणाधार।
सब दुःखों को शान्ति से, सहना तप का सार॥१॥
तेजस्वी में शोभता, तप का तेज महान।
ओजहीन नर में वही, निष्फलता से म्लान॥२॥
ऋषियों की सेवार्थ भी, आवश्यक हैं लोग।
ऐसा ही क्या सोचकर, करें न तप कुछ लोग॥३॥
मित्र-अनुग्रह रिपुदमन, यदि चाहो तो आर्य।
दृढ़ प्रतिज्ञा बरवीर वन, करो तपस्या-कार्य॥४॥
सर्वकामनासिद्धि में, रहता तप का योग।
इसीलिए तप को सदा, करते सब उद्योग॥५॥
तप करते जो भक्ति से, वे करते निज श्रेय।
माया के फँस जाल में, अन्य करें अश्रेय॥६॥
तप में जैसा कष्ट हो, वैसी मन की शुद्धि।
जैसे जैसी आग हो, वैसी काश्चनशुद्धि॥७॥
आत्मविजय जिसने किया, इच्छाओं को रोक।
उस पुरुषोत्तम वीर को, पूजे सारा लोक॥८॥
तपबल से जिसको मिले, शक्ति तथा वर-सिद्धि।
मृत्युविजय उसको सहज, ऐसी तप की ऋद्धि॥९॥
दीनों की संख्या अधिक, इसमें कारण एक।
तपधारी तो अल्प हैं, तप से हीन अनेक॥१०॥