सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३४
 

 

परिच्छेद ६३
संकट में धैर्य

करो हँसी से सामना, जब दे विपदा त्रास।
विपदाजय को एक ही, प्रवल सहायक हास॥१॥
अस्थिर भी एकाग्र हो, लेलेता जब चाय।
क्षुब्ध जलधि भी दुःख का, दबजाता तब आप॥२॥
विपदा को वियदा नहीं, माने जब नर आप।
विपदा में पड़ लौटती, विपदाएँ तब आप॥३॥
करे विपद का सामना, भैंसासम जी-तोड़।
तो उसकी सब आपदा, हटतीं आशा छोड़॥४॥
विपदा की सैना बड़ी, खड़ी सुसज्जित देख।
नही तजै जो धैर्य को, डरें उसे वे देख॥५॥
किया न उत्सव गेह में, जब था निजसौभाग्य।
तब कैसे वह बोलता, हा आया 'दुर्भाग्य'॥६॥
विज्ञ स्वयं यह जानते, विपदागृह है देह।
विपदा में पड़कर तभी, बने न चिन्ता गेह॥७॥
अटल नियम में सृष्टि के, गिनता है जो दुःख।
उस अविलासी धीर को, बाधा से क्या दुःख॥८॥
वैभव के वर-लाभ में, जिसे न अति आह्लाद।
होगा उसके नाश में, क्योंकर उसे विषाद॥९॥
श्रम दवाव या वेग में, माने जो नर मोद।
फैलाते उस धीर की, अरि भी गुण-आमोद[]॥१०॥


  1. सुगन्धि।