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पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/३१३

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'परिच्छेद ९१
स्त्री की दासता

नारी की पद-अर्चना, करने में जो लीन।
उच्च नहीं वह आर्यजन, बने न विषयाधीन॥१॥
जो विषयी निशदिन रहे. भरा मदन-सन्ताप।
ऋद्धि सहित भी निन्ध हो, लज्जित होता आप॥२॥
नारी से दब कर रहे, सचमुच वह है क्लीव।
मद्रों में यह लाज से, चले न हो उद्ग्रीव॥३॥
प्रिया-भीत कामात को, देखे होता खेद।
उस अभव्य हतभाग्य के, गुण रहते यश-भेद॥४॥
नारी की सेवार्थ ही कामी का पुरुषार्थ।
क्या क्षमता साहस करे, गुरुजन की सेवार्थ॥५॥
प्रिया सुकोमल बाहु से, जो धूजें भय मान।
मान नहीं उनका कहीं, जो हों देवसमान॥६॥
जिसपर चोली-राज्य की, प्रभुना का अधिकार।
उससे कन्या ही भली, लज्जाभूषित सार॥७॥
प्रियापचन ही कार्य में, जिनको नित्य प्रमाण।
मित्रकार्य या और कुछ, करें न वे कल्याण॥८॥
धर्म तथा धन से रहे, कामी को वैराग्य।
प्रेमामृत के पान का, नहीं उसे सौभाग्य॥९॥
कर्ता उत्तम कार्य के, भाग्य उदय के धाम।
करें न विषयासक्ति सी, दुर्मति का चे काम॥१०॥