परिच्छद्) कुसुमकुमारी। १११ "बेटी कुसुम ! हा!--ईश्वर को कैसी अद्धन लीला है ! जिन गजा कर्णसिंह की तुलड़की है; उनकी सहोदराबड़ी बहिन ही मेरी सुशीला स्त्री थी। हा! जगदीश्वर !!!" इतना सुनते ही कुसुम के दिल पर नो क्या बीती, यह तो वही जाने, पर बसन्तकुमार के चित्त पर भी बड़ा भारी खेद-रूपी पहाड़ टूट पड़ा। थोड़ी देर तक सबके सब चुप हो और रह-रह कर घर्ती, आकाश और एक दूसरे की और देखते रहे। फिर कुमुम ने पूछा..... क्या आप उस दुष्ट जगन्नाथी पड़े को जानते हैं ?" भैरोसिंह.--"नहीं, हम उसकं अस्त को नहीं जानते; यदि जानते मी होते, तो भी अच कर ही क्या मकाते हैं ? " कुसुम,-"आजकल मेरे माता, पिता, छोटे भाई और बहिन राजी-बुशी हैं न ? भैरोसिंह,-(ताज्जुब से) "तुम्हें अपने छोटे भाई का हाल क्योंकर मालूम हुआ ?" कुसुम,-"यह बात मैं पीछे कहूंगी; पहिले आप उन सभों का कुशल तो कहिए ?" भैरोसिंह,--“जब वह शादी पक्की करने में गया था, तब उन सभों को मैंने मजे में देखा था।" कुसुम ने बसन्त की ओर देखकर कहा,-"तुमसे मैंने अपनी जीवनी के दूसरे हिस्से के कहने का वादा किया था, पर कई दैवी घटनाओं के कारण अभी तक उसके कहने की बारी नहीं आई थी, सो अब मैं फूफा-साहब के आगे उसे कह डालती हूं।" यों कहकर उसने उट कर भैरोसिह के चरणों में अपना सिर रख दिया और आंखों में आंसु भरकर कहा,-"फूफाजी! आज मैं सचमुच अपका लड़की हुई, सो अब आप इस बात की प्रतिज्ञा करिए कि मुझे कमी न छोड़ेग और जोमैं कहूंगी, उसे अवश्य मान लेंगे।" कुसुम को भैरोसिह ने उठाकर बैठाया और कहा,-"बेरी! इन बातों का फैसला पाँछे होता रहेगा; अभी तुम अपनी जीवनी का अखीर हिस्सा तो कह सुनाओ।" कुसुम ने कहा मैं कभी यह बात कह आई हूँ कि बारहवें बरस में पैर रखते ही मैंने अकेले में एक दिन पंडे के दिए हुए उस
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