पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१२७

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म्वगायकुसुम । बत्तीसपा ... . मुखड़ा यदि कलङ्कित न होगा तो क्या कुलबालाओ का होगा हा! जब मैं अपनी इस वर्तमान दशा के साथ अपने उस कल का मिलान करती हूं, जिसमे कि मैं पैदा हुई थी, तब यही जी चाहता है कि क्यों कर अपनी जान दे डालं ! प्यारे! सच जानो. जो कुछ मेरे दिल पर बीत रही है, वह जीही जानता है ! यदि आत्महत्या को मैं महापाय न समझती होती तो अब तक कभी की इस संसार से कंच कर गई होती! प्राणप्यारे ! तुम्हें पाकर यद्यपि मैं बेश्याओं के राक्षसी पाप से तो बेशक बची, पर क्या मैं किसी तरह भी तुम्हारे साथ हिन्दू- समाज में खड़ी हो सकती हूं? और, यदि होंगी तो, मेरे जन्में बाल- बच्चे क्या हिन्दुसमाज की गोद मे कभी जगह पा सकेंगे ?" बसन्त,-(लंबी सांस लेकर ) " प्यारी ! सच है, इतने दिनों पीछे आज तुमने एक विचित्र बात कह कर मेरे कलेजे को मथ डाला! हाय ! हिन्दुसमाज इतना ओछा और छोटे दिल का क्यों है ? धिकार है, इस समाज पर !!!" कसुम.--कमी नहीं, कभी नहीं, इस भूमंडल मे हिन्दुसमाज से बढ़ कर कोई भी समाज सुन्दर नियमों की शृखला मे वधा हुआ नहीं है। इस समाज को प्राचीन महर्षियों ने ऐसे सुन्दर और अपूर्व नियमों के मूल पर बाधा है. कि क्या कहूं। यद्यपि समय के फेर से इसकी शाखाओं में बहुन सी बुराइयां आ लपटी हैं. पर इसके मूल में अभी तक कोई भी बुराई नही पहुंची है। सोचा तो सही कि यदि वेश्याओं को भी समाज में जगह मिलने लगे तो फिर यह हिन्दू- समाज एक दिन "वेश्यासमाज" बन जायगा कि नहीं?” बसन्त,-"पर, सनी ता: जिस हिन्दुसमाज में बड़े घड़े कल की कलवन्तियां भी ऐसे ऐसे भयानक काम करती हैं, कि जिनपर ध्यान देने से फिर कभी इस समाज के नाम लेने का भीजी नहीं चाहेगा; ऐसी अवस्था में तुम्हारे ऐसी “स्वर्गीय कुलम" ने ऋया पाप किया है, जो समाज तुम्हें अपनी गोद मे जगह न देगा?" कम,--"तुम ठीक कहते हो, प्यारे ! मैं भी जो अभी यह कह आई हूँ कि, 'समय के फेर से इसकी शाखाओं में बहुनसी बुराइया आ लपी है; 'सो इस प्रकार के व्यभिचार और भृणहत्या आदि को भी धम्ही बुराइयों मे ही चाहिए परन्तु यदि तुम गौर करके वागेमार सायोगे तो खुद इस बात को समझ सवा गे कि इन