पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१५७

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१४८ स्वगायकुसुम। (सतीसवा और अपने पिता के चरणो मे सिर लगाकर कमरे से बाहर हुई। उस समय कर्णसिंह इतन ग़मगीन हारहे थे कि उन्होंने कुसुम से फिर कुछ न कहा और उसके जाने पर एक मुक्का अपने कलेजे में मार कर अपने तई गद्दी पर डाल दिया! कुसुम जब इस कमरे से बाहर निकली थी, तब उसने अपने भाई को तेजी के साथ एक तरफ़ जाते हुए देखा था। खैर, उसने दूरही से अपने भाई को भी चलते-चलाते देलिया और डेरे पर आकर और पालकी पर सवार होकर आरे की ओर कूत्र किया। कुसुम के चले जाने पर घण्टो पीछे लोगों ने उस कमरे में जाकर देखा कि. 'राजा कर्णसिह अपनी गद्दी पर बेसुध पड़े हुए हैं ! यह देख, लोगों ने घबराकर उन्हें होश कराया, और जब उनके होशो हवास दुरुस्त हुए तो उन्होंने कुसुम को तलाश कराया, परन्तु वह तो तबतक आरे चलीगई थी! उस दिन से राजा कर्णसिह को किसीने प्रसन्न-बदन न देखा! उनकी प्रसन्नता मानो कद्दी चली गई थी और वे सांसारिक झमटों से अलग होकर एकान्त-वास करने लग गए थे। रात दिन कुसुम की तस्वीर उनकी भांखो के आगे घुमा करती थी और अक्सर सपने में वे 'चन्द्रप्रभा' का नाम लेलेकर बर्राया करते थे। यह सच्च था, पर वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कुसुम का किस्सा अपने मनही में छिपाए हुए थे और उसे प्रगट करके अपने जी का बोझ हलका नही कर सकते थे क्योंकि यह रहस्य ऐसा पेचीदा था कि किसी पर भी प्रगट नही किया जा सकता था। कुसुम के साथ राजा कर्णसिंह की निराले कमरे में क्या क्या बातें हुई थी, इसका भेद, केवल एक आदमी को छोड़कर, और किसी को भी नहीं मालूम हुआ। यद्यपि कुसुम और राजा कर्णसिंह अपने अपने मन में यही समझते थे कि, 'हमारी रहस्यमरी बातों को किसी तीसरे ने न सुना होगा. परन्तु नहीं, उन बातो को एक आदमी ने अवश्य सुना था! तो वह आदमी कौन सा है ? मुनिए, वह आदमी, वही कुसुम का सगा भाई अनुपसिंह है, जिसने छिपकर कुसुम की सारी जीवनी सुनली थी ! फिर जब कुसुम कमरे में से जाने लगी थी तो वह भी चहासे चलनहा हुआ था। कमरे से बाबर हाती हुई कुसुम न अपने भाई का तेजा क साथ एक तरफ