पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१७०

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परिच्छेद) कुसुमकुमारी। . r हो : क्योंकि धर्म की व्यवस्था देश, काल और पात्र के अनुसार ही की जाती है, इसीलिए शास्त्रों में प्रत्येक युग में धर्म की भित्र भित व्यवस्थाएं कीगई है।" इसके माद कुसम ने त्र्यम्बक के साथ इस देवदासी प्रथा पर उसी प्रकार घोर तर्क-वितर्क किया, जैसा कि उसने अपने बाप के साथ किया था। कुसुम का यह तर्कवाद' एकर लिखा जाचुका है, इसलिये फिर दुचारे उसके लिखने की कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। इस पुस्तक के पढ़नेवालों को चाहिए कि यदि उनकी इच्छा हो तो वे कुसुम के उस 'तकंवाद' को फिर एक धारदुहराकर पढ़ डाले। निदान, कुसुम के विलक्षण और अद्भुत तर्कवाद को सुनकर घद पण्डा बहुत ही चकित और प्रसन्न हुमा । उसने कुछ कहने के लिये ज़बान बोली ही थी कि कुसुम ने कहा,-"को, पण्डाशी ! भला, यह तो बताइए कि किसीको अपने बेरी-बेटे पर क्या अधिकार है कि यह उन ( बेटी-बेटों) का जो चाहे,सो करडाले?" इस विचित्र बात को सुनकर वह पण्डाहंसा और कहने लगा- "वाह, यह तो बड़ा ढ़ियां प्रश्न है बल्कि तुम्हारे समान कोई कोई ऐसा भो प्रश्न कर सकते हैं कि,-'किसीको बेटा-बेटी पैदा करने का ही कमा अधिकार है !' मगर लेर, सुनो,-जैसा अपने लड़कों पर उनके माता-पिता का पूरा पूरा अधिकार है, वैसेही लड़कों का भी अपने माता-पिता की सम्पत्ति पर पूरा पूरा अधिकार है। पिता स्वयं ही आत्मज-रूप से प्रगट होता है, (१) इसीलिये पुत्र को आत्मज' और कन्या को 'आत्मजा' कहते हैं । यह सारा संसार परमात्मा की विभूति है। इसमे जो कुछ है. वह सब पर. मेश्वर का ही है। इतने पर भी जो वस्तु परमेश्वर से मांगकर पाई जाती है. वह यदि उसी परमेश्वर को,--"त्वदीय वस्तु गोविन्द : तुभ्यमेव समर्पये" कहकर समर्पण करदी जाय, तो, इसमें अपराध, पाच, या दोष क्या है ? समीकी यह अधिकार है कि यह परमेश्वर को सम्ची भक्तिभावना से 'सर्वस्व-समर्पण' करदा न राजा. पर्णसिंह ने जो श्रीजगदीश से प्रार्थना करके लुम्हें पाया और तुम्हें श्रीजगदीश की वस्तु समझकर भक्तिभाव से तुमको श्रीजगन्नाथजी (१) वै जायन पुत्र इति वेदानुशासनम्