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पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१८०

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परिउर) इकतालीसवां परिच्छेद, -- BAAR मनकी बात. " अनिदयोपभोगम्य, रूपस्य मृदुनः धम् । कठिनं खलु ते चेत्तः, शिरीपस्येव बन्धनम् ॥ (साहित्यानाकर) EENक दिन अपनी उदासी की तरंगों में गाते स्वाती हुई एर कुसुम बाग के एक कमरे मे पलंग पर पड़ी हुई थी कि एकाएक वसन्तकुमार ने वहीं पहुंचकर आवाज़ -दी, --- प्यारी. कुसुम!" कुसुम,---( चिहुंक और अपने तईसरहान कर ) "कोन? प्यारे मेरे ! यह कहकर वह उठ बैठी और अगड़ाई देने, जम्हाई लेने सार रूमाल से और मलने के बाद बोली.--"आओ,प्यारे ! क्यों? कल कहां थे? यही मानो तुम्हारा रोज का आना है ? ऐं!" बसन्त उसी पलंग पर बैठ गया और बोला,-'प्यारी ! कई उलझनों से कल आ न सका।" कुम,-"ठीक है, पर तुम क्या यह नहीं जानते फि मेरे प्राण तुम्हीं हा; सो तुम्हें एक नजर देखे बिना, मैं क्योंकर जोऊगी ? लच है, आखिर तो मैं रंडी ही न हूँ:" बसन्त, उसे गले लगाकर } "हाय, हाय : मैं अपना सिर पोट हालंगा, अगर तुम फिर ऐसी बात जबान पर लाओगी प्यारी! करा तुम्हें दवे बिना. मैं नहीं तड़पता? पर यह कांदा तो तुमने आप ही बोया है !" कुसुम, कमा,क्या?" बसन्त,- शादी क्यों कर ही?" कुसुम,-"इस्पीलिये कि जिसमें समाज में तुम घर गृही -चाले होकर सुख से रहो और तुम्हारा बंश चले, जिससे तुम्हारे पितर- लोग तृम हो वसन्त --'सो सब ठीक है मार क्या तुम यह नहीं जानता हा कि समा खी तुम्हरे का सा नही हाना "