पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१८१

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स्वगायकुसुम । (इकतालोसपा कुसुम,-"क्या मेरी बहिन तुम्हें आने को मना करती है ? . बसन्त,-"मना करना तो अच्छा भी होता, पर वह ऐसे ऐसे ताने मारती है कि क्या कहूं!" कुसुम,-(जरा कलेजामसोस कर) "खैर, तो,और कुछ तो मैं चाहती नहीं,-यदि छिनभर का तुम्हारा यहां आना भी उसे नागवार हो तो, प्यारे ! न आया करो ! मैने पहिले ही अपने मुख को तिलाअलि देकर तुम्हारा ब्याह कर दिया है, इसलिये अन्न उसी को सुखी करना चाहिए, जिसका हाथ मैंने तुम्हें पकड़ा दिया है।" यसन्तकुमार सिर नीचा किए हुए चुपचाप सुनता रहा, पर बोला कुछ भी नहीं। कुसुम ने फिर कहा,-"सुनो, प्यारे ! मैं और तो कुछ चाहती ही नहीं, पर क्या करूं? जो छिन भर भी तुम्हें न देखें, तो मेरा मन न जाने क्यों, जल-हीन मीन की तरह तड़पने लगता है!" बसन्त,-"प्यारी ! मैं क्या तुम्हे जी-जान से नहीं चाहता? हाय ! तुम्हारे प्यार से मैं हज़ार जन्म लेने पर भी उरिन नही हो सकता!अच्छा, अब जैले होगा, बिना एक बार रोज आए, न रहूंगा। हाय ! तुम्हीने तो इस बात की कसम देदी है कि, 'मेरा कोई भी हाल उससे न जाहिर किया जाय, तो अब मैं करूं क्या ? मैं समझता हूं कि यदि तुम्हारा सारा रहस्य उससे कहा जाए तो वह तुम्हें अपनी सगी बहिन जानकर तुम्हारी वैसी ही सेवा करे, जैसी कि छोटी अहिन बड़ी बहिन की किया करती हैं, और तब ऐसा भी हो सकता है कि, तुम्हार! सारा रहस्य उस पर प्रगट कर दिया जाय और तुम दोनों मिलकर एक साथ ही रहो; तब तो फिर ऐसे सुख से दिन करें कि जिसका नाम ! " कुसुम,-'ठीक है, पर मैं ऐसा करना नहीं चाहती। हां! यदि तुम मपनी चतुराई से मेरी बहिन को खुश न कर सको और उससे यहां आने का हुक्म न हासिल कर सको, तो, प्यारे ! न आया करो!" इतना कहते-कहते कुसुम की आंखें डबडवा आई! उसने अपने नई बहुत सम्हाला, पर आखिर वह भी तो स्त्री ही थी ! बसन्त- फुमार की भी बुरो गत हुई और उसकी मां भी मांसू गिराने लगी।