पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१८५

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१७६ स्वगायकुसुम। (बयामोसषा कुसुम ता यहा पडे पटे निहारा करो।" बसन्त ने हंसकर कहा,-"हम भावुक हैं, इसलिये बिना समझे कोई काम नहीं करते ! कसुम के भी अधरों में हंसी नाचगे लगी, उसने सिर हिला. कर कहा,-"जी हां ! ठोक है ! आपका भाव आजकल किस 'दर' का है ? " इसी समय दासी ने तम्बाकू मरकर हुक्का आगे ला धरा और उसका नल बसन्तकुमार के मुंह से लगा दिया। इसी जगह हम कुसुम के नखसिख का बर्णन करना उचित समझते है । सुनिए, वह एक स्वच्छ क सुम्भी रंग की बनारसी साड़ी पहिरे थी। साड़ी का एक कोना कमर से दोनो भुजाओं के नीचे तक फैला था। पीठ खुली, पर कमीली चोली कसी थी। बसन्तानिल इसी उन्नत उरोज के इसनाञ्चल के संग क्रीडा करता था! वह कभी बस्त्र उड़ाकर. कभी चिपकाकर उन्नत उरोजो की दूनी शोभा कर देता था ! साड़ीके भीतर से चंपकसमान अग के रूप-लावण्य की विभा फूट फूट कर बाहर निकलती तथा अपूर्व रस का स्वाद चखानी थी! बसन्त धूम्रपान करते करते अपूर्व भाव से उस अनुपम रूप- माधुरी की छटा से अपने नयन शीतल, मन मुग्ध, और प्राण परितृप्त कर रहा था केशविन्यास, सोलहङ्गार, अपरिष्कार और बसन को बहार से बन ठन कर कुसुम बसन्त के बगल में आकर बैठ गई ! यमन्त ने स्नेह से उसे गले लगाकर कहा,-"कुसुम ! तुम्हारे गंभीर हृदय की थाह न मिली!" क सुमने कहा,-चलो, रहने दो बसन्त,-'आज मेरे भाग्य का क्या पूछना है ! भला, इतने दिनों बाद तुमने जोगिन का भेस तो छोड़ा !" ____ कसुम,-( उस बात का जवाब न देकर )"प्यारे ! तीन महीने हो गए, अब मेरी बहिन को लेआओ।" वसन्त,-"अभी ऐसी जल्दी क्या है?" क सुम "ये रास-माल की बातें जाने दो, और अब जाकर असे ले मामो "