पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१८६

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परि उद) कुसुमकुमारी। बसन्त,-"मेरी तो विवाह करने की इच्छा ही न थी, केवल तुम्होंने जिद करके मेरे गले में यह फांसी लगाई ! खैर जो हुआ सा हुआ, पर अच उनके बुलाने को कोई जरूरत नहीं है, क्योकि उनके आने पर फिर तुम मुझे एलसर भी अपने पास न रहने दोगी और जोगिन शाम लोधी!" कम,-मार. जो मैं कहूंगी. उसे तुम झख मारोगे आर योगे ! अन्न, जुमे जाकर अचले आओ।” बनन्त, --- पर उधर ना मेरा जाना नहीं होलकता ! " कम.-- 'श्या नहीं होसकना ?" वन्दन्न,-"बटुन मा बन्नेडा करना पड़ेगा: " रुसुम,-"तुग कमो बोकी बात करते ही ?" __बलद ही में कसुम के मुन्द पर कछ काप का चिन्ह दिखाई दिया, और इसके उन भाव को जानकर बसन्त ने हंपकर कहा- 'बस नाराज होगई न! बसन्त,-'अच्छा! उसे बुलाने में तुम्हें क्या सुम्ब होगा?" कुसुम.---"तुम्हें देख कर मुझे जो कुछ हपहाता है, अपनी सगी बहिन को दन्दका भी वहीं आनंद होगा। वसन्त... प्रिय ! तुम्हारा अद्भुत प्रेम मैं नहीं समझ सकता किन्तु यह कस्वान तो तुम्हारे नाम से बहुत ही त्रिढ़ती है और मुई. तुम्हारे पास आने नहीं देनी ?" कुतुन,-"न लही, पर उमे रब ले आना चाहिए । " चमक,-'इसमें भी तुम्हावो कुछ जबदस्ती है क्या?" कुत्तुम.---"हा ! है तो, तुम मरा हट नहीं जानते ! " वनन्त-स्म, इसीलिये इतना कोप!" कुसुम ने धीरे से गंभोर-माव-पूर्वक कहा,-"जचो. ये क्या दिल्लगी की वाने हैं?" बसन्त:--"अच्छा विगहो मत. उसे बुला लंगा।" कुतुम.-?" बसन्त, इसी मास में. कई दिन के बाद। कुस्तुम..~~"सन. ठीक हुमान?" यसम्त ठीक हुआ "