परिच्छेद ) कुसुमकुमारी ! . ७ ० गुलाय,-"बस, बस ! अन मैं समझी ! तुम उसका सर्पस्व यो नहीं फेर देते ?” बसन्त,-"वह क्या लेती है ?" गुलाथ,-"तम फिर तुम्हाग दाप या कृतघ्नता कैमी ?" यसन्त,-"मेरा दंप को नहीं ? मैं इस जन्म में उसे या उसकी कृतज्ञता को कभी भूल सकता हूं? वह जो अपना सर्वस्व मुझे दे बैठो है, उसका क्या यही चदला है? जरा साचो ना प्यारो कि यदि यह हठकरके यह व्याह न कराती तो फिर तुम्ही कहांले आनी?" गुलाब.-"तब फिर तुमने मुझसे व्याह क्यों किया, जो उसीके पास जाना था।" बसन्त.-- तो इसमे तुम्हें दुग्नकमा है ? कुन्नुम तो तुम्हारे लिये सब कुछ छोड बैठी है. तिसरी वट मुझे रात भर वा आधी रात तक भी अपने पास नहीं रहने देनी । जब मैं जाता हूं, नो, दा घार इधर उधर का ते करके वः मुझबर विदा करदेती है, दंग मक उरने भी नहीं देनी शाय: नन पर ना तुम्हें तुःश्व हालाई उस बेचारी पर डाह होती है ?" गुलाय,-"मई ! मुझसे यह सूल नहीं सहा जाता!" बसन्त,-"किन्तु यह डाह तुम्हारी अनुचित है ! " गुलाब.-"मन नही मानना ता या करू?" असन्त,-"देखो, प्यारी ! तुम अभी कुसुम को चीन्हतो नही! उसका मन बहुत ऊंचा है ! जय तुम बाहर थी, तब बारबार वह तुम्हारे बुलाने के लिये मुझसे छेडछाड़किया करती थी और उसीन घरजोरी मुझे भेजकर तुम्हें बुलाया भी है। देखो, अब भी,जय किसी दिन वहां मुझे कुछ भी देर होती है, तो वह अनेक छल, कौशल,अनुरोध, उपरोध करके मुझे बिदा करदेती है, और देर तक नहीं रहने देती। यह साचता है कि, जिसमें गुलार को किसी तरह का कष्ट न हो।' यह सब जान-बूझ कर भा तुम उससे जलती हो : भला, उसे एक चार देखने जाना भी मुझे उचित नहीं है ?" गुलाव और नी भीगी रस्सी की भांति ऐठ गईउसमे और भीष गुणों के साथ क्रोध भी इतना था कि राम ही रक्षक! ' उसतं झंझलाकर पहा "जीहां' मैं उस रामा सभी समझर्स भोर मुम्ह र सुर स मी सुनता पिवह मुझपर पादर
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