पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१८७

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स्वगायफलम। (संतालीसषा तेंतालीसवां परिच्छेद, STOSTATISTATESTIMES HEATREAapinaca प्रेम का विनिमय. " भवतु विदित व्यर्थाला पैरलं प्रिय गम्यताम्, ननुरपि न ते दोषोऽस्माकं विधिम्तु पराङ्मुखः । तब यदि तथारुढं प्रेम प्रनमिमा दशा, प्रकृतितरले का नः पीडा गते हतजीविते ॥" । (भदन्तधर्मकीतः) ANNE' मोन होगा. मैं ग जाने दूंगी:"--यह कहकर एक स्थिर-लौदामिनी सो ललनाने वसन्तकुमार का हाथ थाम लिया! बसन्त,-"छि प्यारी.तुम्हें ऐमा करना चाहिए? उहरो, मैं अभी आऊंगा।" वह बसन्तकुमार की विवाहिता स्त्री गुलाव देई थी वह गुलाब. चिनिन्दित गुलाब होने पर भी गुलान के मनी कॉटेले कटीले म्यभार को न छोड़ सकी थी ! जब वह ऐन-मैन गुलाब ही थी, तो फिर उमके रूप का क्या कहना है । तथापि रूपाभिमानिनी सुन्दरियों के परखने के लिये हम गुलाब की छवि कलम से खींच देते है,- बह कोमल-नाजुक छोटा-सा कद, वह चगक समान गौरवर्ण, यह शशधर-विनिन्दित मुखमंडल, वह आगुल्फ-प्रलंब कुंचित केश, वह तिलपुष्पाभ नासिका, वह सीग से सुहावने कर्णबुहर, वह गुलाब की पत्ती मे गुलागी गोल गाल. वह आकर्गावलविन नयन. कमल, वह सरल कटाक्ष, वह कम-नीय कबुकंठ, वह बिंब के से सुधामधुर ओष्टाधर, वह कमल-कलिका-काल र कुन कुंद कुड्मल,- ये एक एक अंग पचवाण के पचवाण पर साद देते थे! रक्ताम्बर में से नोली कसीली चोली गोली मी आकर लगती थी! अग अग में अदूषण सृषण लहज लावण्य के दृषणप्राय थे. वह मनोहारिणीभकुटी चढ़ाकर बोली,--"तुम क्यो वहां जम्ने है? असन्त - 'यो जाता ई- यह क्या तुम नहीं जानती ? मैं उसके समापकिसनी पमा स्तक्षता कार में बधाइ यद्द कहा तक की"