परिच्छेद ) कसुमकुमारी। १८१ - गुलाब के पिता राजा कर्णसिंह और माता कंवर अनूपसिह तो अपनो वहिन कुसम के सारे रहस्य को अच्छी तरह जान गए थे, पर अनूपसिह की स्त्री कुसम के बारे में कुछ भी नहीं जानती थी, इसलिये वह गुलाश को बराबर यह साना मारा करती थी कि, 'मेरे नन्दाई जी ( अर्थात बसन्तकुमार ) तो रण्डी के भडुवे हैं !!!' इत्यादि । बस इन्हीं बातों पर लक्ष्य करके गुलाब ने यह बात बसन्त से कही थी, जिसके कहते कहते उसकी आँखो से आंसू टपकने लगे थे! यह देख कर असन्त ने कहा,---"वाह रोने क्यों लगी ?" गुलाब,-"मेरे भाग्य मे रोना ही लिखा है. तो क्यों न रोऊ? तुम उसके पास क्यो जाते हो?" बसन्त,-'हाय. तुम न समझो तो मैं कैसे तुम्हें समझाऊं?" गुलाब--"अर्जा, मैं सब समझ झ चुकी. मुझे अब समझाना- त्रुझाना क्या? और सना तो सही,-जा उसे तुम्हारी इतनी चाह है. तो वहीं आकर तुम्हें क्यों नहीं देन्द्र जाया करती ?" बसन्त,...'वह रोज-रोज यहा नहीं जाना चाहती: पर ज आती है, नश तुम्हें कितना प्यार करती है ?" गुलाब.-"मैं उसके प्यार को हाथ जोड़ती हूं, क्योकि सौत और सार का प्यार एक सा है।" बसन्त,-'बैर, जो हो, अब तो मैं जाता हूँ। गुलाब ---"आज न जाने से, मानो काम न सलेगा!" चमन्त.--" उसने बहुन कुछ कहा है इसलिये न जाने से वह मन में कट पावैगी।" गुलाय.---"पर उपचनो कोन हरामजादी तुम्हें जाने देती है ! क्योंकि अगर तुम आज जाओगे तो खून-खराबी होगी!" "हाय आज मेरे कहीं चौथे चंद्रमातो नहीं हैं ? *-यह कहकर बसन्तकुमार ने सोचा कि, 'अन्य बात बहुत बढ़ गई है, आगे और भी मात्रा बढ़ जायगी; इसलिये वह बिना कुछ जबाव दिए ही, धीरे-धीरे चल दिया ! गुलाब ने नाव-पेच खाकर मन में सोचा,-गड का कैसा चाव है ? इसे बिना मिटाए काम न चलेगा । यो बकती-कभी, और मन मसोसती हुई कमर कमीनर जाकर उसने दर्शना बद कर लिया ।
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