पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१९१

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१८२ स्वगोषकुसम । (चवालीसषा चौंवालीसवां परिच्छेद. हृदय-बाल. "कर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्ते- में शक्यते धैर्यगुणः प्रमाटुंम् । अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्न- धिः शिखा यान्ति कदाचिदेव ॥" (भत हरिः) ARTA के आठ बज गए थे, सुन्दर सुगन्धले चारो ओर मह- रामह होरहा था और दूज का चांद आकाश के मुखमंडल PM में श्वेत दात की भांति शामा दरहा था। ऐसे ममय बसन्त- कुमार कुसुमकुमारी के बाग मे पहुंचा! कुसुम उस समय उदासी सेसेज पर पड़ी-पड़ी कछ सोच-विचार कर रही थी, और उसका कमल सा मुखड़ा कुम्हिलाया हुआ था ! बसन्त ने उसके पास बैठ, उसके गालों पर हाथ फेरते फेरते कहा," प्यारी कुसुम ! आज तुम इस तरह श्यो उदासी से लेटी हुई हो?" ___ इतना सुनतेही कुसम के मुख पर मृदुमुमकान की छटा छिटकी और उसका फीका चेहरा कुछ चम-चम कर उठा! मानो धनी मेघराशि में चंचल चपला चमक उठी! पर आज उमकी उस हसी मे वह लालित्य, वह माधुर्य, वहमनोहारिणी शाक्ति, और वह इ दय- ग्राही भाव न था! न जाने, वह किस तरह की सूखी धारा थी और यह किस तरह का हदयहीन भाव था! उसने उठ और वसन्त का हाथ पकड़ कर कहा,-एँ ! कुछ भी तो नहीं ! बैठो, प्यारे ! मजे में बैठो!" यों कहकर यह फिर उसका भाव देखकर बसन्त ने माप ही भाप लबी सांस ली। चह कुलुम के सिरहाने सरक कर दानो हाथों से उसका गाल कुछ कर चुबन करते करते बाला,--"क्याप्यारी! शरीर कैसा है ? कुसुम न प्रेम से उसका मुख नम कर कहा.---'कुछ तो नहीं; मण्डा सो है।