१८६ स्वगायनुसुम । ( पैतारीसधा पैंतालीसवां परिच्छेद. विषपान "मृत्योर्विभेषि कि मूढ, भीतं मुञ्चति किं यमः। अजातं नैव गृह्णाति, करु यत्नमजन्मनि ॥" (वैराग्यप्रदोपे.) ही पूरी करके कुसुम ने उसे लिफ़ाफ़े मे बन्द किया और उसके ऊपर लिखा. 'प्राणाधार वसन्तकुमार !' . इतना हिखते लिखते-हाय ! बेचारी कुसुम की जोदशा हुई, उसे लिखते कलम की भी छाती चार ट्रक हुई जाती है ! कुसुम ने चिट्टी अपने पलंग पर रखकर आलमारी में से एक छोटी सी संदूक निकाली फिर उसे खोलकर उसके भीतर से एक सोने की डिबिया निकाली; उसमे से एक सफेद-मफेद सी'डली" निकाल कर आंचल में बांधली : फिर संदूक जहां की तहां रख, आलमारी का ताला बद कर, बसन्तकुमार की तस्वीर के सामने जा, पछाड़ खाकर बह गिर पड़ी! एक घटे तक वह उसी भांनि वहीं पड़ी-पड़ी रोती रही, फिर उसने उठकर अपने प्यारे की तस्वीर को अपने कलेजे से लगाया और एक लंची सांस ली। इसके बाद अपने आंचल से उसी डली को निकाल कर अपने मुह मे डाल लिया !!! कुसुम जानती थी कि, 'अब इस पिछलो रात के समय में मेरे चरित्रों का देखनेवाला कौन है । ' पर नहीं, उसकी प्यारी नमक हलाल दासी हुलासी उसकी उसदिन की उदासी से मन ही मन दुम्बी होकर उस रात को जागती थी और उसके रंगढंग पर ओख लगाए हुई थी; सो वह कमरे के बाहर की झिलमिल में से उसकी सारी कर्तत निहार रही थी ! इतनी देरतक ना वह अल्हड़ दासी चुपचाप खडी खड़ी कुसुम की अद्भुत लीला देखती रही, पर जब कसुम ने उस खली को अपने मुहं में डाल लिया तब हुलासी चुपकी न रह सकी और घबराकर हाय हाय" फरतीहई कमरे के मोतर
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