परिच्छेद) कमुमकुमारी। जाने की कोशिश करने लगी किन्तु मन्य उपाय व्यर्थ हुआ, क्योंकि कसुम ने बसन्त के जाने पर हुलासी को विदा करके भीतर से कमरे के दर्वात बन्द कर लिए थे! फिर तो मुलासी ने चुपचाप,--जिममें कुसुम आहट न पावे,- कई प्याज़े को जगा और उन्हें कुछ समझा बुझाकर धीरे से एक ओर के दाज के कब्जे की पेंच खोलकर राह बना ली और दवे पैर भीतर जाकर क्या देखा कि, 'जिस कोठरी मे बसन्तकुमार की तस्वीर रक्खी थी, वहीं, उसी तस्बार के नीचे, कसुम बेसुध पड़ी है। हाय ! बेचारी हुलासी का इसमें क्या दोष था ? वह क्मा जाननी थी कि, कुमुम जहर खा लेगी!' निदान. हुलासी ने यह दशा देख अपना सिर पीट लिया, पर वह हैरान धी, कि, 'बीबी ने न जाने क्या बालिया । और यो रहा लिया!!! आस्त्रिर, चट उसने एक आद्मी के हाथ कुसुम की संज पर पड़ी हुई उस चिट्ठी को असन्त के पास भेजा और यह भी चाहला दिया कि, 'जहा तक हो सक, जल्द आइए, क्योकि बोबी ने न जाने सफ़ेद-सफेद क्या खा लिया है. इसके बाद उसने दूसरे आदमी की समझा-बुझाकर वैद्यजी के बुलाने के लिये दौड़ाया। हुलानी ने कुसुम को बहुत पुकारा, और उसके मुह पर गुलाब जल का बहुतेरा छींटा भी मारा, पर सब व्यर्थ हुआ, क्योंकि कुसुम :-हा !!! आगे नही लिखा जाता !!! यहांपर एक बान कुछ खटकती है, वह यह है कि, ज्योहा कुसुम नभाने मुह में संस्त्रिया कोडली डाली थी, या ही हुलासी घनकर कमरे के अन्दर जाने के लिये उपाय करने लगी थी; इममें-अर्थात् कमरे के दजे का कबजा खोलकर उस ( कमरे ) के अन्दर जाने मे हुलामी को जादे से जादे आये घंटे का समवन्टगा होगा, परन्तु या इतनी ही ( थोड़ी देर में कुसुम बेहोश होगई थी, जो हुलाली के इतने पुकारनं या गुलाबजल के छोटे खाने से भी कुछ न बोला! कौन जाने, ममें क्या बात थी सम्भव है कि, 'कुसुम उस समय तक होश-हवास में रहो होः' और यह जानकर उत्तने सनाटा बँचा हो कि, जिसमे मुझे जहर स्वाने का भेद अपने मुहम जाहिर न करना महे ।' अस्नु जो कुछ बात हुई है। इसे नारायण इं जान सकत हैं
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