परिच्छद) कुसुमकुमारी। १६१ समय आत्महत्या की मैं महापाप समझती थी; बस यही कारण था कि इतने दिनों तक मैं किसी न किसी तरह जीती रही। प्राणधन ! यदि मैं चाहती ना तुम्हारे साथ अपनी ज़िन्दगी,-- सुख से, या दुख से,-किसी न किसी तरह बिना ही देती; परन्तु एक दिन एकाएक मेरा ध्यान अपनी दशा, अपनी दौलत, और हिन्दूसमाज की ओर गया ! मैंने सोचा कि मुझे या मेरो सन्तान को हिन्दनमाज की गोद में कभी स्थान मिल ही नहीं सकता! हाय, यह बात सोचते ही मेरे राम-रोम में बिच्छूटक मारने लगे! यद्यपि मेरे पिता मुझे फिर से ग्रहण करने के लिये तयार थे, पर हिन्दुसमाज की चाल देखकर मैंने अपने पिता को नीचा दिखाना नहीं चाहा आर अग्नी अवस्था पर सन्तोष क्रिया। फिर मैंने यह सांचा कि,--'प्यारे ! मेरे लिये तुम भी अपने समाज से गिरकर रमातल में चले जाओगे और यह दौलत भी अन्त को याही बर्याद हो जायगी !"यम यही सब सोच समझ कर मैंने मसार, समाज और अपने मुख को निलांगुलि देकर तुम्हारा विवाह अपनी सगी बहिन के साथ कर दिया | यदि जगदोश्वर की दया होगी तो तुम अपने समाज में कायम रहकर बेटे-बेटियों का भी सुख उठाओगे और इम दौलत को भी अच्छे अच्छे कामों में लगाओगे! "जीवनधन ! केवल इतना ही नहीं, वरन भैगे महकी भयानक जीवनी और व्यरक्षक के भयङ्कर परिणाम ने मेरे कलेजे को और मो भरपुर मशडाला. और अपने पिता से मिल कर तो मैं एक प्रकार से मगही चुकी तो जय कि मेरी दशा मेसी शोचनीय हो उठी,-नो प्यारे ! अब तुम्ही बतलाओ कि ऐसी दशा में फिर कै दिन जीने की इच्छा होमकतो है और ऐसी अवस्था में आत्महत्या का कहां तक खयाल रह सकता है? "जीवनप्राण ! एक बात और है, वह भी सुन लो.-भला अब मैं मरती बार तुमसे यमों कपट रक्खं ? सुनो.-मेरे साथ जो तुम्हारी चुपचाप शादी हुई थी. इस बात को.--और में दर-अमल कौन और गुलाब मेरी कौन है, इस बात को.--अर्थात इन दोनों बातों को गुलाब पर न जाहिर करने की मैंने तुमसे सस्त नाकीद करदी थी, और तुमने भी आज तक इन रहस्यों का रत्तीभर हाल भी उससे नहीं कहाथा; पर भव तुम उमस सारा भेद सालकर कह दमा और यह माह
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