पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८
छठवां
स्वर्गियकुसुम

स्वगायकुसुम [म्या NVAR “निदान ! वह राक्षसी दो महीने यहां रही और उतने दिनों मे उसने ऐसा प्यार मुझ पर मलकाया कि मैं उसे मां की तरह समझने और मां कहकर पुकारने भी लगी थी। "मैं श्रीजगन्नायजी के एक पंडा के घर रहती थी, उसी पडे को उस हत्यारी ने कुछ रुपये देकर मुझे लेलिया और वहांसे अपना डेरा कंच किया। "वह पड़ा, जिसे मैं अपना बाप समझती थी, मुझे बिदा करते समय अकेले मे लेगया और रोकर मुझसे बोला कि,-'बेटी! छ: महीने की जब तू थी, उस समय एक राजा तुझे जगन्नाथजी के द्वार पर चढ़ा गया था; तबसे आज तक तुझे मैंने पाला; पर मैं कगाल हूं, इसलिये तुझ-सी भाग्यवान लड़की को अब मैं अपने घर नहीं रख सकता । जिसके संग आज मैं तुझे बिदा करता हूँ, वह बिहार की एक रानी है, इसलिए तू उसके घर राजकन्या बनकर रहेगी। अब एक बात और सुन,-जब तू स्यानी होइयो, तब इस यंत्र को तोड़कर अपना सचा हाल जान लीजो; क्यों कि इसके भीतर तेरा पूरा-पूरा हाल भोजपत्र पर लिखकर मैंने रख दिया है।' यह कहकर उस अर्थपिशाच पंडे ने एक चांदी का तावीज़, जो कि अंगूठे के बराबर मोटा, ढोलक की शकल का' था, मेरे गले में पहिना दिया। फिर उसने एक चांदी की तरवती, जो कि चार अंगुल लम्बी और चार ही अंगुल चौड़ी भी (चौखंटी) थी और जिस पर कुछ अक्षर खुदे हुए थे, मेरे गले में डाल दी और कहा कि, 'इसमें भी तेरा कुछ हाल लिखा हुआ है। सो, जब तू समझ- दार होगी, तब आप ही सब यातें जान जायगी। 'यों कहकर उस दुष्ट ने मुझे उस पिशाची के हाथ सौंपा! मे बसंतकुमार, जो लेटा हुआ था, उठ बैठा और बोला,-" हे राम : तीर्थ के पंडे भी ऐसे राक्षस और अर्थपिशाच होते हैं ! अच्छा फिर?" कुसुम, सभी फिर्के के लोगों में अच्छे और बुरे,दोनों तरह के आदमी होते हैं। खैर! सुनो, तुम अचरज मानोगे और है भी यह अचरज ही की बात, कि यद्यपि मैं उस समय निरी नादान बची थी, पर मुझे बिदा करते समय उस पंडे ने जितने अक्षर कहे थे वे सब ज्यो क त्यो मानों मेरे कलेजे पर लिख गए थे और उस