पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
परिच्छेद]
१७
कुसुमकुमारी

परिच्छेद कुसुमकुमारी • रुमा परिन्द . पहिला हाल. " यदपि जन्म बभूव पयोनिधौ, निवसनं जगतीपतिमस्तके । तदपि नाथ पुराकृतकर्मणा, पतति राहुमुखे खलु चन्द्रमाः ॥" (व्यासः) FAध का महीना प्रारंभ हुआ था और सर्दी का जोर पूरे मा तौर पर कायम था; ऐसे समय में रात को कुसुम अपने सजे हुए कमरे में बैठी हुई, बसंतकुमारसे बाते कररही Rथी। बसंतकुमार मखमली मसनद पर गावतकिए के सहारे से लेटा हुआ था और उसीकी और मुंह किए, झुकी हुई कुसुम उससे हंस-हँस-कर बातें कर रही थी। बसंत ने कहा,-" प्यारी! महीनों पीछे आज घडीभर बैठकर बात करने की छुट्टी मिली है !" कुसुम,-" अच्छा, तो और बातों को छोड़कर आज मैं अपना पुराना हाल तुम्हें सुनाऊं?" बसंत,-" उसीके सुनने के लिये तो जान निकल रही है !" कुसुम,-(हँसकर )" हां! मर्दो की जान तो बात-बात में ही निकला करती है, इसमें अचरज स्मा है ! खैर, सुनो, आज दिन मैं सत्रहवें साल में हूं। अंदाज़न दस-ग्यारह बरस हुए होंगे, जिस समय मैं छः-सात बरस की थी और श्रीजगन्नाथजी के मन्दिर में खेला करती थी। वहां चुन्नीवाई से,जो कि उस समय वहां दर्शन के लिये गई हुई थी, मेरी जान-पहिचान हुई। प्यारे ! छ:-सात बरस की लड़की की बिसात श्या? बस, यह मुझे अच्छे अच्छे खिलौने और मिठाई देती और इसी लालच से मैं पहरों उसके डेरे पर उसके पास खेला करती थी। हाय! उस सांपिन ने इतना प्यार दिखलाया किजो मैं उसे एक दिनन देखतीतोरो-रो-कर अपना बुरा हाल कर आलनी और उसी मोह-माया में ' मैं दोनों जहान से गई।